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यत्रा॑ समु॒द्रः स्क॑भि॒तो व्यौन॒दपां॑ नपात्सवि॒ता तस्य॑ वेद । अतो॒ भूरत॑ आ॒ उत्थि॑तं॒ रजोऽतो॒ द्यावा॑पृथि॒वी अ॑प्रथेताम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yatrā samudraḥ skabhito vy aunad apāṁ napāt savitā tasya veda | ato bhūr ata ā utthitaṁ rajo to dyāvāpṛthivī aprathetām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत्र॑ । स॒मु॒द्रः । स्क॒भि॒तः । वि । औन॑त् । अपा॑म् । न॒पा॒त् । स॒वि॒ता । तस्य॑ । वे॒द॒ । अतः॑ । भूः । अतः॑ । आः॒ । उत्थि॑तम् । रजः॑ । अतः॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । अ॒प्र॒थे॒ता॒म् ॥ १०.१४९.२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:149» मन्त्र:2 | अष्टक:8» अध्याय:8» वर्ग:7» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:2


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्र) जिसमें जिसके आश्रय में (समुद्रः) समुन्दनशील आकाशस्थ सूक्ष्म जलाशय (स्कभितः) वायु के द्वारा सम्भाला हुआ-ठहरा हुआ (वि-औनत्) भूमि को विशेषरूप से गीला करता है (अपां नपात्) जलों को न गिरानेवाला (सविता तस्य वेद) परमात्मा उसको जानता है (अतः-भूः) इससे जो उत्पन्न होती है विकृति महत्तत्त्वादि पञ्चतन्मात्र पर्यन्त सत्ता (अतः-रजः उत्थितम्-आः) यहीं से अन्तरिक्षलोक उत्पन्न हुआ है (अतः) यहीं से (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवीलोक (अप्रथेताम्) प्रथित हुए फैले ॥२॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा के आश्रय आकाश का जलाशय वायु के द्वारा सम्भला हुआ है, वही भूमि पर बरसता है, वह कैसे बनता और कैसे स्थिर रहता है, उसको वायु नहीं जानता, किन्तु परमात्मा जानता है, उस परमात्मा से महत्तत्त्व से लेकर पञ्च तन्मात्राओं तक सूक्ष्म सृष्टि उत्पन्न होती है, वहीं से अन्तरिक्षलोक भी उत्पन्न होता है, और द्युलोक पृथ्वीलोक भी उसी के द्वारा फैलाये हुए हैं ॥२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

त्रिलोकी के निर्माता 'प्रभु'

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (यत्रा) = जहाँ (स्कभितः) = अन्तरिक्ष में थमा हुआ (समुद्रः) = यह अन्तरिक्षस्थ समुद्र, अर्थात् मेघ (व्यौनत्) = विशेषरूप से भूमि को क्लिन्न करता है, (अपांनपात्) = जलों का न गिरने देनेवाला (सविता) = यह उत्पादक प्रभु (तस्य वेद) = उस अन्तरिक्षलोक के निर्माण को जानता है। प्रभु ही इस अन्तरिक्ष लोक का निर्माण करते हैं जहाँ स्थित हुआ हुआ मेघ भूमि को क्लिन्न करता है । [२] (अतः) = इस प्रभु से ही (भूः) = पृथिवी का निर्माण होता है, (अतः) = इस प्रभु से ही (आ) = चारों ओर (रजः) = ये लोक-लोकान्तर (उत्थितम्) = उठ खड़े हुए हैं, बनाये गये हैं । (अतः) = इस प्रभु से ही (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवी लोक (अप्रथेताम्) = विस्तृत किये गये हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु ही अन्तरिक्ष लोक व अन्तरिक्षस्थ मेघों का निर्माण करते हैं। वे ही द्यावापृथिवी को भी विस्तृत करते हैं।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्र) यस्मिन्-यदाश्रये (समुद्रः-स्कभितः) समुन्दनशीलः-आकाशस्थः समुद्रः सूक्ष्मजलाशयो वायुना स्तम्भितः (वि-औनत्) भूमिं विशेषेण-उनत्ति क्लेदयति “उन्दी क्लेदने” [रुधादि०] अस्माच्छान्दसं रूपं लुङि (अपां नपात्) अपां न पातयिता सविता परमात्मा तं समुद्रं वेद जानाति “तस्य द्वितीयार्थे षष्ठी व्यत्ययेन” (अतः-भूः) अतो भवति या सा विकृतिः सत्ता महत्तत्वादिपञ्चतन्मात्रान्ता (अतः-रजः-उत्थितम्-आः) उद्गतम-न्तरिक्षलोकः आसीत् “रजसः-अन्तरिक्षलोकस्य” [निरु० १२।७] (अतः-द्यावापृथिवी-अप्रथेताम्) अत एव द्यावापृथिव्यौ विस्तीर्णौ भवतः ॥२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Where the ocean of vapours and water is sustained and whence it sprinkles the earth with showers, only Savita, eternal sustainer of waters, knows that mystery. Thence, from Savita, arises the earth, thence arises the sky and thence only the heaven and earth arise in mutual relation and expand.