पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! हे (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो! आप (पृथ्या:) = पृथी के अपनी शक्तियों का विस्तार करनेवाले के (हवंश्रुधि) = पुकार को सुनते हैं। (उत) = और (वेन्यस्य) = चिन्तनशील-क्रियामय जीवन वाले उपासक के [ वेन् = to go, to reflect, to worship] (अर्कैः) = स्तोत्रों से (स्तवसे) = आप स्तुति किये जाते हैं । प्रभु का सच्चा स्तोता 'पृथी' है और 'वेन्य' है । [२] (यः) = जो (ते) = आपके (घृतवन्तं योनिम्) = दीप्तिवाले निवास स्थान [परम पद] का (आ अस्वाः) = सर्वथा शंसन करता है, अर्थात् मोक्षलोक व ब्रह्मलोक के सौन्दर्य का ध्यान करता है, इस प्रकार के (वक्वा:) = ब्रह्मलोक के सौन्दर्य का कथन व चर्चण करनेवाले लोग आपकी ओर उसी प्रकार (द्रवयन्त) = गतिवाले होते हैं, (न) = जैसे कि (निम्नैः) = निम्न मार्गों से (ऊर्मिः) = जलसंघ गतिवाला होता है। जलसंघ की गति जिस प्रकार शान्त व नम्रता को लिये हुए होती है, इसी प्रकार यह स्तोता शान्ति से नम्रतापूर्वक आपकी ओर बढ़ता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ–शक्तियों का विस्तार करते हुए, गतिशील बनकर हम प्रभु के उपासक हों । ब्रह्मलोक का स्मरण करते हुए, शान्त नम्रभाव से उसकी ओर बढ़ें। सम्पूर्ण सूक्त इस भाव को व्यक्त कर रहा है कि सोमरक्षण के द्वारा 'शक्तिशाली, शान्त व नम्र' बनकर प्रभु के हम उपासक हों, प्रभु की ओर गतिवाले हों, प्रभु को प्राप्त हों। यह प्रभु का पूजन करनेवाला 'अर्चन्' अपने शरीर में शक्ति [हिरण्य] की ऊर्ध्वगतिवाला [ स्तूप] बनता है । इसका नाम ' अर्चन् हैरण्यस्तूपः ' हो जाता है। अगले सूक्त में यह प्रभु को 'सविता' नाम से उपासित करता है-