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त्वं शर्धा॑य महि॒ना गृ॑णा॒न उ॒रु कृ॑धि मघवञ्छ॒ग्धि रा॒यः । त्वं नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो॒ न मा॒यी पि॒त्वो न द॑स्म दयसे विभ॒क्ता ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ śardhāya mahinā gṛṇāna uru kṛdhi maghavañ chagdhi rāyaḥ | tvaṁ no mitro varuṇo na māyī pitvo na dasma dayase vibhaktā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम् । शर्धा॑य । म॒हि॒ना । गृ॒णा॒नः । उ॒रु । कृ॒धि॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । श॒ग्धि । रा॒यः । त्वम् । नः॒ । मि॒त्रः । वरु॑णः । न । मा॒यी । पि॒त्वः । न । द॒स्म॒ । द॒य॒से॒ । वि॒ऽभ॒क्ता ॥ १०.१४७.५

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:147» मन्त्र:5 | अष्टक:8» अध्याय:8» वर्ग:5» मन्त्र:5 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:5


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (दस्म) हे दर्शनीय (मघवन्) ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (त्वम्) तू (महिना) महान् स्तुतिसमूह से (गृणानः) स्तुत किया जाता हुआ-स्तुति में लाया जाता हुआ (शर्धाय) बल को हमारे में (उरु कृधि) बहुत कर (रायः) धनों को (शग्धि) दे (त्वम्) तू (नः) हमारा (न) सम्प्रति-इस समय (मित्रः) प्रेरक प्रेरणा करनेवाला (वरुणः) वरनेवाला-अपनानेवाला (मायी) प्रज्ञावान् है (पित्वः) अन्न का (विभक्ता) बाँटनेवाला (न दयसे) सम्प्रति देता है ॥५॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा दर्शनीय है और ऐश्वर्यशाली है, बहुत स्तुति करने योग्य है, बलदायक है, धनों को प्रदान करनेवाला है, संसार में कर्म करने के लिए प्रेरणा करनेवाला और मोक्ष के लिए वरनेवाला यथायोग्य भोज्य पदार्थ को देनेवाला है ॥५॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

शक्ति-धन- अन्न

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (मघवन्) = ऐश्वर्यवन् प्रभो ! (महिना गृणानः त्वम्) = खूब ही स्तुति किये जाते हुए आप (शर्धाय) = बल के लिये हमें (उरु) = खूब (कृधि) = करिये। अर्थात् हम खूब ही आपका स्तवन करें और खूब ही शक्ति को प्राप्त करें। आप (रायः शग्धि) = हमारे लिये धनों को भी दीजिये । [२] हे (दस्म) = हमारे सब कष्टों का उपक्षय करनेवाले प्रभो ! (त्वम्) = आप (नः) = हमारे लिये (मित्रः वरुणः न) = मित्र और वरुम के समान होते हुए, अर्थात् हमें मृत्यु व रोगों से बचाते हुए [प्रमीते: त्रायते इति मित्रः ] तथा हमारे से द्वेषादि को दूर करते हुए [वारयति इति वरुणः ], (मायी) = सम्पूर्ण माया के स्वामी होते हुए, (न) = [ संप्रति सा० ] अब (विभक्ता) = सब धनों का उचित विभाग करनेवाले होते हुए (पित्व: दयसे) = पालक अन्न को देते हैं। आपकी कृपा से हमें उन अन्नों की प्राप्ति होती है, जो कि हमारे रक्षण के लिये आवश्यक हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- उपासित प्रभु हमें शक्ति देते हैं, धन देते हैं तथा शरीर रक्षा के लिये आवश्यक अन्नों को प्राप्त कराते हैं। सम्पूर्ण सूक्त इस भावना पर बल देता है कि हम श्रद्धापूर्वक प्रभु का उपासन करें। प्रभु हमें सब आवश्यक चीजें प्राप्त करायेंगे। प्रभु की उपासना से अपनी शक्तियों का विस्तार करनेवाला यह 'पृथु' बनता है [प्रथ विस्तारे] । गतिशील, विचारशील व उपासना की वृत्तिवाला होने से 'वैन्य' कहलाता है [वेन् to go, to reflect, to worship] । यह कहता है-
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (दस्म मघवन्) हे दर्शनीय ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (त्वं महिना गृणानः) त्वं महता स्तुतिसमूहेन स्तूयमानः, ‘कर्मणि कर्तृप्रत्ययः’ (शर्धाय-उरु कृधि) शर्धं-बलम् “शर्धो बलनाम” [निघ० २।९] ‘द्वितीयार्थे चतुर्थी व्यत्ययेन’ अस्मासु बलं बहु कुरु (रायः-शग्धि) धनानि दत्स्व “शग्धि-देहि” [ऋ० ४।२१।१० दयानन्दः] (त्वं नः) त्वमस्माकं (न मित्रः-वरुणः) सम्प्रति प्रेरयिता वरयिता (मायी) प्रज्ञावान् चासि (पित्वः-विभक्ता न दयसे) अन्नस्य वितरणकर्त्ता-सम्प्रति-अन्नं ददासि ॥५॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indra, lord giver and creator of glory, pray let us rise and expand in the field of knowledge and action. Give us wealth and power of a high order of nobility. You are Mitra and Varuna for us, friend and just guide, giver and commander of wondrous capability, noble and blissful, and one with us, you give us food for body, mind and soul for the individual and the human community.