पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (मघवन्) = ऐश्वर्यवन् प्रभो ! (महिना गृणानः त्वम्) = खूब ही स्तुति किये जाते हुए आप (शर्धाय) = बल के लिये हमें (उरु) = खूब (कृधि) = करिये। अर्थात् हम खूब ही आपका स्तवन करें और खूब ही शक्ति को प्राप्त करें। आप (रायः शग्धि) = हमारे लिये धनों को भी दीजिये । [२] हे (दस्म) = हमारे सब कष्टों का उपक्षय करनेवाले प्रभो ! (त्वम्) = आप (नः) = हमारे लिये (मित्रः वरुणः न) = मित्र और वरुम के समान होते हुए, अर्थात् हमें मृत्यु व रोगों से बचाते हुए [प्रमीते: त्रायते इति मित्रः ] तथा हमारे से द्वेषादि को दूर करते हुए [वारयति इति वरुणः ], (मायी) = सम्पूर्ण माया के स्वामी होते हुए, (न) = [ संप्रति सा० ] अब (विभक्ता) = सब धनों का उचित विभाग करनेवाले होते हुए (पित्व: दयसे) = पालक अन्न को देते हैं। आपकी कृपा से हमें उन अन्नों की प्राप्ति होती है, जो कि हमारे रक्षण के लिये आवश्यक हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- उपासित प्रभु हमें शक्ति देते हैं, धन देते हैं तथा शरीर रक्षा के लिये आवश्यक अन्नों को प्राप्त कराते हैं। सम्पूर्ण सूक्त इस भावना पर बल देता है कि हम श्रद्धापूर्वक प्रभु का उपासन करें। प्रभु हमें सब आवश्यक चीजें प्राप्त करायेंगे। प्रभु की उपासना से अपनी शक्तियों का विस्तार करनेवाला यह 'पृथु' बनता है [प्रथ विस्तारे] । गतिशील, विचारशील व उपासना की वृत्तिवाला होने से 'वैन्य' कहलाता है [वेन् to go, to reflect, to worship] । यह कहता है-