पदार्थान्वयभाषाः - [१] (एषः) = यह वनस्थ पुरुष अंग शीघ्र ही ['अंग' क्षिप्रे च ] (गाम्) = इस ज्ञान की वाणीरूप गौ का (आह्वयति) = आह्वान करता है । यह सदा वेदवाणी का अध्ययन करता है और (एवः) = यह अंग- शीघ्र ही (दारु) = शक्तियों को विदीर्ण करनेवाली वासनाओं को अपावधीत् सुदूर विनष्ट करता है । वानप्रस्थ का मूल कर्त्तव्य यही है कि ज्ञान की वाणियों का अध्ययन करे, वासनाओं को विनष्ट करे। [२] (अरण्यान्यां वसन्) = वन में निवास करता हुआ अथवा उत्तम गति व ज्ञान की स्थिति में निवास करता हुआ यह (इति मन्यते) = यह मानता है कि पुरुष साधना के लिये (सायम्) = सायंकाल (अक्रुक्षत्) = अवश्य प्रभु का आह्वान करे। सायंकाल अन्धकार का प्रारम्भ होता है, उस समय आसुरभाव प्रबल होने लगते हैं। उनके विनाश के लिये सन्नद्ध होकर प्रभु का उपासन करने लगना यह आवश्यक है। इस प्रभु ध्यान में ही शून्यावस्था को लाने का प्रतिदिन अभ्यास निहित है। इसी स्थिति में निहित हो जाने से अशुभ स्वप्न न होकर स्वप्नावस्था में प्रभु - दर्शन का सम्भव होता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- वानप्रस्थ के तीन कर्त्तव्य हैं- [क] स्वाध्याय, [ख] वासना परिहार, [ग] प्रभु का आराधन ।