पदार्थान्वयभाषाः - [१] (एवा) = इस प्रकार (इन्द्र:) = जितेन्द्रिय पुरुष (इन्दुना) = इस सोम के द्वारा (चित्) = निश्चय से (तत्) = उस (महिन्म) = अहान् (त्यजः) = दुःखों के वर्जक तेज को (देवेषु) = सब इन्द्रियों में (धारयाते) = धारण करता है । सोम की ही शक्ति सब इन्द्रियों में कार्य करती है और सब इन्द्रियों को बलवान् बनाती है । सोम के रक्षण से इन्द्रियों में दोष नहीं उत्पन्न होते । [२] (क्रत्वा) = सोमरक्षण के दृढ़ संकल्प से (वयः) = शक्ति व स्वास्थ्य (वितारि) = बढ़ाया जाता है। (आयुः) = इसी से दीर्घ जीवन प्राप्त किया जाता है । [३] हे (सुक्रतो) = शोभन प्रज्ञान व कर्मवाले जीव ! (क्रत्वा) = इस दृढ़ संकल्प से ही (अयम्) = यह (अस्मदा सुतः) = हमारे लिये उत्पन्न किया जाता है। यह सोम रक्षित होकर अन्ततः प्रभु प्राप्ति का साधन बनता है। एवं सोमरक्षण के लिये मनुष्य को दृढ़ संकल्प होना ही चाहिये ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ-रक्षित सोम इन्द्रियों को सशक्त बनाता है। इससे स्वास्थ्य व शक्ति प्राप्त होती है, अन्ततः यह प्रभु प्राप्ति का साधन बनता है । सम्पूर्ण सूक्त सोम रक्षण के महत्त्व का प्रतिपादन कर रहा है। इसी में इन्द्र की शक्ति का निवास है । यह इन्द्र की शक्ति ही इन्द्र पत्नी व 'इन्द्राणी' कहलाती है । यही अगले सूक्त की ऋषिका है। यह उत्तम ओषधियों के द्वारा सोम के उत्पादन का प्रयत्न करती है। 'ओषधि' आचार्य का भी नाम है । उस आचार्य से ब्रह्मविद्या को प्राप्त करने का प्रयत्न करती है-