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ए॒वा तदिन्द्र॒ इन्दु॑ना दे॒वेषु॑ चिद्धारयाते॒ महि॒ त्यज॑: । क्रत्वा॒ वयो॒ वि ता॒र्यायु॑: सुक्रतो॒ क्रत्वा॒यम॒स्मदा सु॒तः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

evā tad indra indunā deveṣu cid dhārayāte mahi tyajaḥ | kratvā vayo vi tāry āyuḥ sukrato kratvāyam asmad ā sutaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒व । तत् । इन्द्रः॑ । इन्दु॑ना । दे॒वेषु॑ । चि॒त् । धा॒र॒या॒ते॒ । महि॑ । त्यजः॑ । क्रत्वा॑ । वयः॑ । वि । ता॒रि॒ । आयुः॑ । सु॒क्र॒तो॒ इति॑ सुऽक्रतो । क्रत्वा॑ । अ॒यम् । अ॒स्मत् । आ । सु॒तः ॥ १०.१४४.६

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:144» मन्त्र:6 | अष्टक:8» अध्याय:8» वर्ग:2» मन्त्र:6 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:6


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (एव) इस प्रकार (इन्द्रः) आत्मा (इन्दुना) वीर्य पदार्थ से (देवेषु चित्) इन्द्रियों में भी (महि त्यजः) महान् तेज को (धारयते) धारण करता है (क्रत्वा) संयम कर्म से (वयः-आयुः) जीवन और दीर्घ आयु को (वि तारि) प्रवृद्ध करता है (सुक्रतो) हे संयमरूप सुष्ठु कर्म से प्राप्त होने योग्य वीर्य पदार्थ (अयम्) यह तू (अस्मत्) हमारे द्वारा (क्रत्वा) कर्म से (आ सुतः) भलीभाँति प्राप्त हुआ अभीष्ट को सिद्ध कर ॥६॥
भावार्थभाषाः - आत्मा संयम से वीर्य की रक्षा करके द्वारा इन्द्रियों में तेज धारण करता है, जीवन और आयु को बढ़ाता है, सुरक्षित वीर्य द्वारा अभीष्ट कर्मफल सिद्ध होता है ॥६॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

शक्ति व प्रभु प्राप्ति

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (एवा) = इस प्रकार (इन्द्र:) = जितेन्द्रिय पुरुष (इन्दुना) = इस सोम के द्वारा (चित्) = निश्चय से (तत्) = उस (महिन्म) = अहान् (त्यजः) = दुःखों के वर्जक तेज को (देवेषु) = सब इन्द्रियों में (धारयाते) = धारण करता है । सोम की ही शक्ति सब इन्द्रियों में कार्य करती है और सब इन्द्रियों को बलवान् बनाती है । सोम के रक्षण से इन्द्रियों में दोष नहीं उत्पन्न होते । [२] (क्रत्वा) = सोमरक्षण के दृढ़ संकल्प से (वयः) = शक्ति व स्वास्थ्य (वितारि) = बढ़ाया जाता है। (आयुः) = इसी से दीर्घ जीवन प्राप्त किया जाता है । [३] हे (सुक्रतो) = शोभन प्रज्ञान व कर्मवाले जीव ! (क्रत्वा) = इस दृढ़ संकल्प से ही (अयम्) = यह (अस्मदा सुतः) = हमारे लिये उत्पन्न किया जाता है। यह सोम रक्षित होकर अन्ततः प्रभु प्राप्ति का साधन बनता है। एवं सोमरक्षण के लिये मनुष्य को दृढ़ संकल्प होना ही चाहिये ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ-रक्षित सोम इन्द्रियों को सशक्त बनाता है। इससे स्वास्थ्य व शक्ति प्राप्त होती है, अन्ततः यह प्रभु प्राप्ति का साधन बनता है । सम्पूर्ण सूक्त सोम रक्षण के महत्त्व का प्रतिपादन कर रहा है। इसी में इन्द्र की शक्ति का निवास है । यह इन्द्र की शक्ति ही इन्द्र पत्नी व 'इन्द्राणी' कहलाती है । यही अगले सूक्त की ऋषिका है। यह उत्तम ओषधियों के द्वारा सोम के उत्पादन का प्रयत्न करती है। 'ओषधि' आचार्य का भी नाम है । उस आचार्य से ब्रह्मविद्या को प्राप्त करने का प्रयत्न करती है-
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (एव) एवम् (इन्द्रः) आत्मा (इन्दुना) वीर्यपदार्थेन (देवेषु चित्-महि त्यजः-धारयते) इन्द्रियेषु महत् तेजो धारयति (क्रत्वा) संयमकर्मणा (वयः-आयुः-वि तारि) जीवनमायुश्च विशेषेण वर्धय (सुक्रतो) यस्मै सुष्ठु क्रतुः कर्मकृतं तत्सम्बुद्धौ हे सुष्ठु संयमरूपकर्मणा प्राप्तवीर्यपदार्थ ! (अयम्) एष त्वम् (अस्मत्) अस्माभिः “सुपां सुलुक्०” [अष्टा० ७।१।३९] इति तृतीयायाः लुक् (क्रत्वा-आसुतः) कर्मणा समन्तात् प्राप्तोऽभीष्टं साधय ॥६॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Thus does Indra, life of life, through soma life energy, disseminate and bear the great creative vitality in the divine forms of nature and humanity. O lord of holy action, the health and age of distinct life forms is extended and maintained by holy acts of soma activity, and this vitality is created and distilled from us by us through the holy discipline of yajnic living with brahmacharya.