पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे प्राणापानो! (वाम्) = आप (सुम्नै) = सुखों से (शंयू इव) = हमारे साथ शान्ति को युक्त करनेवाले हो । आप (मंहिष्ठा) = हमारे लिये दातृतम हो । अधिक से अधिक शक्तियों के देनेवाले हो । (विश्ववेदसा) = सम्पूर्ण धनोंवाले हो । प्राणापान सब कोशों को ऐश्वर्य सम्पन्न करते हैं । [२] (नरा) = हमारा नेतृत्व करनेवाले, हमें आगे ले चलनेवाले प्राणापानो! (अस्मे) = हमारे लिये (उत्सं न) = स्रोत के समान (पिप्युषीः इषः) = आप्यायित करनेवाले अन्नों को (सं भूषतम्) = सम्यक् अलंकृत करो। जैसे स्रोत से, चश्मे से उत्तम जलधारा का प्रवाह होता है इसी प्रकार प्राणापान के द्वारा अन्नों का ठीक प्रकार पाचन होकर रस- रुधिर आदि धातुओं का उचित प्रवाह होता है। वैश्वानर अग्नि [ जाठराग्नि] प्राणापान से युक्त होकर भोजन का ठीक पाचन करती है । तभी उस मुक्त अन्न से रस आदि का ठीक प्रवाह होता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्राणापान भोजन का ठीक परिपाक करके हमें सुख व शान्ति प्राप्त कराते हैं। सम्पूर्ण सूक्त प्राणापान की साधना के महत्त्व को प्रतिपादित कर रहा है। इससे शरीर, मन व बुद्धि तीनों ही ठीक बनते हैं। इन तीनों का ठीक बनानेवाला 'सुपर्ण' कहलाता है, उत्तमता से पालन करनेवाला । यह गतिशील होने से 'तार्क्ष्य' कहलाता है। संयमी होने से 'यामायन' है तथा वीर्य की ऊर्ध्वगतिवाला 'ऊर्ध्वकृशन' [ऊर्ध्वरेता] बनता है। यह 'वीर्य' के महत्त्व को प्रतिपादित करता हुआ कहता है-