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आ वां॑ सु॒म्नैः शं॒यू इ॑व॒ मंहि॑ष्ठा॒ विश्व॑वेदसा । सम॒स्मे भू॑षतं न॒रोत्सं॒ न पि॒प्युषी॒रिष॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā vāṁ sumnaiḥ śaṁyū iva maṁhiṣṭhā viśvavedasā | sam asme bhūṣataṁ narotsaṁ na pipyuṣīr iṣaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ । वा॒म् । सु॒म्नैः । शं॒यूइ॒वेति॑ शं॒यूऽइ॑व । मंहि॑ष्ठा । विश्व॑ऽवेदसा । सम् । अ॒स्मे इति॑ । भू॒ष॒त॒म् । न॒रा॒ । उत्स॑म् । न । पि॒प्युषीः॑ । इषः॑ ॥ १०.१४३.६

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:143» मन्त्र:6 | अष्टक:8» अध्याय:8» वर्ग:1» मन्त्र:6 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:6


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (विश्ववेदसा) हे सब ज्ञानवाले अध्यापक और उपदेशक ! (मंहिष्ठा शंयू-इव) अत्यन्त ज्ञानदाता कल्याण प्राप्त करानेवाले (वां नरा सुम्नैः) तुम दोनों नेता साधुप्रवचनों से (अस्मे-आ सं भूषतम्) हमें भलीभाँति संस्कृत करो (पिप्युषीः-इषः) जैसे बढ़ते हुए वृष्टि के जल (उत्सं न) कुँए को भरते हैं-पूरा कर देते हैं ॥६॥
भावार्थभाषाः - अध्यापक और उपदेशक अत्यन्त ज्ञान देनेवाले कल्याणकारी होते हैं, वे साधुप्रवचनों से लोगों को संस्कृत करते हैं और ज्ञान से भरते हैं, जैसे वृष्टि के जल जलाशय को भरा करते हैं ॥६॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

नीरोगता का आनन्द

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे प्राणापानो! (वाम्) = आप (सुम्नै) = सुखों से (शंयू इव) = हमारे साथ शान्ति को युक्त करनेवाले हो । आप (मंहिष्ठा) = हमारे लिये दातृतम हो । अधिक से अधिक शक्तियों के देनेवाले हो । (विश्ववेदसा) = सम्पूर्ण धनोंवाले हो । प्राणापान सब कोशों को ऐश्वर्य सम्पन्न करते हैं । [२] (नरा) = हमारा नेतृत्व करनेवाले, हमें आगे ले चलनेवाले प्राणापानो! (अस्मे) = हमारे लिये (उत्सं न) = स्रोत के समान (पिप्युषीः इषः) = आप्यायित करनेवाले अन्नों को (सं भूषतम्) = सम्यक् अलंकृत करो। जैसे स्रोत से, चश्मे से उत्तम जलधारा का प्रवाह होता है इसी प्रकार प्राणापान के द्वारा अन्नों का ठीक प्रकार पाचन होकर रस- रुधिर आदि धातुओं का उचित प्रवाह होता है। वैश्वानर अग्नि [ जाठराग्नि] प्राणापान से युक्त होकर भोजन का ठीक पाचन करती है । तभी उस मुक्त अन्न से रस आदि का ठीक प्रवाह होता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्राणापान भोजन का ठीक परिपाक करके हमें सुख व शान्ति प्राप्त कराते हैं। सम्पूर्ण सूक्त प्राणापान की साधना के महत्त्व को प्रतिपादित कर रहा है। इससे शरीर, मन व बुद्धि तीनों ही ठीक बनते हैं। इन तीनों का ठीक बनानेवाला 'सुपर्ण' कहलाता है, उत्तमता से पालन करनेवाला । यह गतिशील होने से 'तार्क्ष्य' कहलाता है। संयमी होने से 'यामायन' है तथा वीर्य की ऊर्ध्वगतिवाला 'ऊर्ध्वकृशन' [ऊर्ध्वरेता] बनता है। यह 'वीर्य' के महत्त्व को प्रतिपादित करता हुआ कहता है-
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (विश्ववेदसा) हे सर्वज्ञानवन्तौ-अध्यापकोपदेशकौ ! (मंहिष्ठा शंयू-इव) अत्यन्तज्ञानदातारौ शं प्रापयितारौ, ‘इव इति पदपूरणः’ “इवोऽपि दृश्यते” [निरु० १।१०] (वां सुम्नैः-नरा) युवां नेतारौ साधूपदेशैः “सुम्ने मा धत्तमिति साधौ मा धत्तमित्येवैतदाह” [श० १।८।३।२७] (अस्मे-आ सम्-भूषतम्) अस्मान् समन्तात् संस्कुरुथः (पिप्युषीः-इषः-उत्सं न) यथा प्रवर्धमाना वृष्टेरापः-उत्सं कूपं जलाशयं पूरयन्ति “प्यायी वृद्धौ” [भ्वादि०] ततो लिटि क्वसुः “लिड्यङोश्च” [अष्टा० ६।१।२९] इति पी भावः “इषा मदन्ति अद्भिः सह सम्मोदन्ते” [निरु० १।२६] ॥६॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Leading lights of the world, greatest and most liberal masters of universal wealth and knowledge, come like benevolent harbingers of peace and freshness of joy, bless us and refine us with your gracious favours of peace, freedom and happiness as abundant showers of rain fill the lake.