[भवसागर के पार] भोगों से ऊपर
पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (नासत्या) = सब असत्यों को दूर करनेवाले प्राणापानो! [न-असत्यौ] (युवम्) = आप (भुज्युम्) = भोगवृत्तिवाले, भोग-प्रवण इस मनुष्य को जो (रजसः समुद्रे) = रजोगुण के समुद्र में (आ ईङ्खितम्) = चारों ओर डाँवाडोल हो रहा है उसे (अच्छायातम्) = आभिमुख्येन प्राप्त होइये । जैसे एक वैद्य रोगी के अभिमुख जाता है और उसे उचित औषधोपचार से नीरोग करता है, इसी प्रकार आप इस रजोगुण के समुद्र में गोता खाते हुए, तृष्णा से पीड़ित मनुष्य को प्राप्त होवो । आपने ही इसे निर्दोष बनाना है। [२] हे प्राणापानो! आप (पतत्रिभिः) = इस (तृष्णा) = समुद्र के पार जाने के साधनाभूत यज्ञादि क्रियारूप नौ विशेषों से [पत गतौ] (पारे कृतम्) = इस समुद्र से पार करिये और इस प्रकार (सातये) = वास्तविक आनन्द की प्राप्ति के लिये होइये । प्राणसाधना से तृष्णा नष्ट होती है और हम (रजः) = समुद्र के पार होकर वास्तविक आनन्द को प्राप्त करते हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्राणसाधना भोगवृत्ति को नष्ट करती है और वास्तविक आनन्द को प्राप्त कराती है ।