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त्यं चि॒दश्वं॒ न वा॒जिन॑मरे॒णवो॒ यमत्न॑त । दृ॒ळ्हं ग्र॒न्थिं न वि ष्य॑त॒मत्रिं॒ यवि॑ष्ठ॒मा रज॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tyaṁ cid aśvaṁ na vājinam areṇavo yam atnata | dṛḻhaṁ granthiṁ na vi ṣyatam atriṁ yaviṣṭham ā rajaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्यम् । चि॒त् । अश्व॑म् । न । वा॒जिन॑म् । अ॒रे॒णवः॑ । यम् । अत्न॑त । दृ॒ळ्हम् । ग्र॒न्थिम् । न । वि । स्य॒त॒म् । अत्रि॑म् । यवि॑ष्ठम् । आ । रजः॑ ॥ १०.१४३.२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:143» मन्त्र:2 | अष्टक:8» अध्याय:8» वर्ग:1» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:2


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यं त्यं चित्) जिस उस ही (वाजिनम्-अश्वं न) बलवान् घोड़े की भाँति भोक्ता आत्मा को (अरेणवः-अत्नत) न जाती हुई वासनाएँ तानती हैं-खींचती हैं (दृढं ग्रन्थिं न) दृढ़ ग्रन्थिवाले ग्रन्थि में  बँधे जैसे (यविष्ठम्-अत्रिम्) अत्यन्त युवा भोक्ता आत्मा को (विष्यतम्) हे अध्यापक, उपदेशक ! तुम छुड़ाते हो (आ रजः) जब तक राग रहता है ॥२॥
भावार्थभाषाः - घोड़े के समान बलवान् आत्मा जब भोक्ता बन जाता है, तो उसके अन्दर वर्तमान वासनाएँ ऐसे अपने ताने बने में फँसा लेती हैं-आकर्षित कर लेती हैं, फिर यह दृढ़ बन्धन में फँस जाता है, ऐसे उपासक और उपदेशक अपने अध्यात्मप्रवचनों द्वारा इसके राग को छिन्न-भिन्न करके छुड़ाते हैं, निर्बन्धन बना देते हैं ॥२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अत्रि का सत्वस्थ मन

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (यम्) = जिस (त्यम्) = उस (अत्रिम्) = अत्रि को, काम-क्रोध-लोभ से ऊपर उठनेवाले को (अरेणवः) = रेणु, धूल व मलिनता को दूर करनेवाले प्राण (अश्वं न) = घोड़े के समान (वाजिनम्) = शक्तिशाली (अत्नत) = बनाते हैं। उस अत्रि की (दृढ) = बड़ी पक्की ग्रन्थिं न गाँठ के समान जो वासना है उसे (विष्यतम्) = समाप्त करते हैं [ सोऽन्तकर्मणि] [२] प्राणापान अत्रि को घोड़े के समान शक्तिशाली बनाते हैं और उसकी हृदयग्रन्थियों का अन्त कर देते हैं (यविष्ठम्) = इस अत्रि को ये बुराइयों को छोड़नेवाला व अच्छाइयों का ग्रहण करनेवाला बनाते हैं। इस प्रकार क्रमशः (आ रजः) = रजोगुण तक इस की सब ग्रन्थियों का ये विनाश करते हैं। 'तमस्' से ऊपर उठाते हैं, प्रमाद आलस्य व निद्रा से दूर करते हैं । और फिर 'रजस्' से भी इसे दूर करते हैं, तृष्णा व अर्थलोभ से ऊपर उठानेवाले होते हैं। इस प्रकार प्राणापान इसे नित्य सत्वस्थ बनाते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्राणापान अत्रि को शक्तिशाली बनाते हुए उसकी तामस व राजस भावनाओं को विनष्ट करते हैं। इसे वे नित्य सत्वस्थ बनाते हैं ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यं त्यं चित्-वाजिनम्-अश्वं न) यं तं खलु बलवन्तमश्वमिवात्तारं भोक्तारं जीवात्मानं (अरेणवः-अत्नत) न गच्छन्त्यो वासनाः “री गतौ” [क्र्यादि०] ततः “अभिकृरीभ्यो निच्च-नुः” [उणादि० ३।३८] तन्वन्ति कर्षन्ति (दृढं ग्रन्थिं न) दृढं ग्रन्थिं ग्रन्थिमन्तमिव (यविष्ठम्-अत्रिम्) तं युवतमं भोक्तारमात्मानं (विष्यतम्) विमुञ्चतम्-विमोचयथः (आ रजः) यावद्रञ्जनम् ॥२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - And the person most youthful, dynamic, ever in harness for winning the goal of life, but bound by the web of life through senses, mind and pranas, all unsoiled though by dust, pray release, undo the bondage like a gordian knot of life so that the person may live free from possible dust and pollution.