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आय॑ने ते प॒राय॑णे॒ दूर्वा॑ रोहन्तु पु॒ष्पिणी॑: । ह्र॒दाश्च॑ पु॒ण्डरी॑काणि समु॒द्रस्य॑ गृ॒हा इ॒मे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

āyane te parāyaṇe dūrvā rohantu puṣpiṇīḥ | hradāś ca puṇḍarīkāṇi samudrasya gṛhā ime ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ॒ऽअय॑ने । ते॒ । प॒रा॒ऽअय॑ने । दूर्वाः॑ । रो॒ह॒न्तु॒ । पु॒ष्पिणीः॑ । ह्र॒दाः । च॒ । पु॒ण्डरी॑काणि । स॒मु॒द्रस्य॑ । गृ॒हाः । इ॒मे ॥ १०.१४२.८

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:142» मन्त्र:8 | अष्टक:8» अध्याय:7» वर्ग:30» मन्त्र:8 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:8


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ते) हे उपासक वैराग्यवन् ! तेरा जब तक शरीर है, तब तक (आयने) इन्द्रियकामनाओं के आगमन में (परायणे) मन के सङ्कल्प में (दूर्वाः पुष्पिणी) दूब और फूलोंवाली बेलें लताओं जैसी भावनाएँ (रोहन्तु) उद्भव हों (समुद्रस्य) पुरुष अर्थात्-आत्मा के (इमे गृहाः) ये गृहरूप इन्द्रिय और मन (ह्रदाः पुण्डरीकाणि च) जलस्रोत और कमल जैसे शोभन सुखप्रद हों ॥८॥
भावार्थभाषाः - वैराग्यवान् उपासक का जब तक शरीर है, अन्य शरीरों की भाँति विषयवासनाओं का घर ना बना रहे, किन्तु हरी-हरी दूबों और फूलोंवाली लताओं के समान भावनाएँ तथा इन्द्रिय और मन स्रोतों और कमल के समान आत्मा को हर्षित करनेवाले स्थान बनें ॥८॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'सौन्दर्य शान्ति व लक्ष्मी' के साथ 'प्रभु'

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (ते) = तेरे (आयने) = अन्दर आने के मार्ग पर तथा (परायणे) = बाहर जाने के मार्ग पर (पुष्पिणीः) = फूलोंवाली, खूब खिली हुई (दूर्वा:) = दूब (रोहन्तु) = उगें । अर्थात् तेरे हर्म्य में सौन्दर्य की कमी न हो। यहाँ दूर्वावाले भूमिभाग घर के सौन्दर्य का चित्रण करते हैं । (च) = और वहाँ (ह्रदाः) = जलाशय हों। ये जलाशय शान्ति के प्रतीक हैं । (पुण्डरीकाणि) = इस घर में कमल हों। ये कमल लक्ष्मी के प्रतीक हैं । [२] इस प्रकार सौन्दर्य शान्ति व लक्ष्मी के निवास स्थान होते हुए इमे ये (गृहाः) = घर (समुद्रस्य) = [स+मुद्] उस आनन्दमय प्रभु के बने रहें । इन घरों में लक्ष्मी हो, पर उस लक्ष्मी में हम आसक्त न हो जाएँ । लक्ष्मी में स्थित हों, लक्ष्मी के दास न बन जाएँ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हमारे घर 'सौन्दर्य, शान्ति व लक्ष्मी' के निवास हों, परन्तु इनमें हम प्रभु के उपासक बने रहें । लक्ष्मी में फँस न जाएँ । सम्पूर्ण सूक्त की मूल भावना यही है कि इस वासनामय जगत् में, लक्ष्मी में रहते हुए भी हम लक्ष्मी में न फँस जाएँ । यह लक्ष्मी में न फँसनेवाला व्यक्ति 'अत्रि' बनता है 'काम-क्रोध- लोभ' तीनों से ऊपर । विचारशील होने से यह 'सांख्य' है । यह प्राणापान की साधना करता हुआ कहता है कि-
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ते) हे उपासक वैराग्यवन् ! तव यावच्छरीरं तावत् (आयने) इन्द्रियकामानामागमने (परायणे) मनसः परागमने-सङ्कल्पे (दूर्वाः-पुष्पिणीः) दूर्वाः पुष्पिणीरिव (रोहन्तु) उद्भवन्तु (समुद्रस्य) पुरुषस्य-आत्मनः “पुरुषो वै समुद्रः” [जै० ३।६] (इमे गृहाः) इमानि गृहाणि-इन्द्रियमनांसि (ह्रदाः पुण्डरीकाणि च) स्रोतांसि कमलानीव च सुखप्रदानि भवन्तु ॥८॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Agni, may flowers and holy grass grow on your arrival, may flowers and holy grass shower on your departure. Let all these homes be homes close to the infinite ocean, with reservoirs and flowers around.$(The seventh and eighth verses may be addressed to the human soul as well as to Agni, leading light and creative spirit of the cosmos.)