'सौन्दर्य शान्ति व लक्ष्मी' के साथ 'प्रभु'
पदार्थान्वयभाषाः - [१] (ते) = तेरे (आयने) = अन्दर आने के मार्ग पर तथा (परायणे) = बाहर जाने के मार्ग पर (पुष्पिणीः) = फूलोंवाली, खूब खिली हुई (दूर्वा:) = दूब (रोहन्तु) = उगें । अर्थात् तेरे हर्म्य में सौन्दर्य की कमी न हो। यहाँ दूर्वावाले भूमिभाग घर के सौन्दर्य का चित्रण करते हैं । (च) = और वहाँ (ह्रदाः) = जलाशय हों। ये जलाशय शान्ति के प्रतीक हैं । (पुण्डरीकाणि) = इस घर में कमल हों। ये कमल लक्ष्मी के प्रतीक हैं । [२] इस प्रकार सौन्दर्य शान्ति व लक्ष्मी के निवास स्थान होते हुए इमे ये (गृहाः) = घर (समुद्रस्य) = [स+मुद्] उस आनन्दमय प्रभु के बने रहें । इन घरों में लक्ष्मी हो, पर उस लक्ष्मी में हम आसक्त न हो जाएँ । लक्ष्मी में स्थित हों, लक्ष्मी के दास न बन जाएँ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हमारे घर 'सौन्दर्य, शान्ति व लक्ष्मी' के निवास हों, परन्तु इनमें हम प्रभु के उपासक बने रहें । लक्ष्मी में फँस न जाएँ । सम्पूर्ण सूक्त की मूल भावना यही है कि इस वासनामय जगत् में, लक्ष्मी में रहते हुए भी हम लक्ष्मी में न फँस जाएँ । यह लक्ष्मी में न फँसनेवाला व्यक्ति 'अत्रि' बनता है 'काम-क्रोध- लोभ' तीनों से ऊपर । विचारशील होने से यह 'सांख्य' है । यह प्राणापान की साधना करता हुआ कहता है कि-