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अ॒पामि॒दं न्यय॑नं समु॒द्रस्य॑ नि॒वेश॑नम् । अ॒न्यं कृ॑णुष्वे॒तः पन्थां॒ तेन॑ याहि॒ वशाँ॒ अनु॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

apām idaṁ nyayanaṁ samudrasya niveśanam | anyaṁ kṛṇuṣvetaḥ panthāṁ tena yāhi vaśām̐ anu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒पाम् । इ॒दम् । नि॒ऽअय॑नम् । स॒मु॒द्रस्य॑ । नि॒ऽवेश॑नम् । अ॒न्यम् । कृ॒णु॒ष्व॒ । इ॒तः । पन्था॑म् । तेन॑ । या॒हि॒ । वशा॑न् । अनु॑ ॥ १०.१४२.७

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:142» मन्त्र:7 | अष्टक:8» अध्याय:7» वर्ग:30» मन्त्र:7 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:7


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इदम्) यह शरीर (अपाम्) कामनाओं का (नि-अयनम्) नियत स्थान है (समुद्रस्य) मन का (निवेशनम्) निवास है (इतः-अन्यम्) इससे भिन्न (पन्थाम्) मार्ग-अध्यात्ममार्ग को (कृणुष्व) सम्पादन कर (तेन) उस मार्ग से-उस आध्यात्ममार्ग से (वशान्) स्ववशवर्ती-आनन्दों का (अनु याहि) अनुभव कर ॥७॥
भावार्थभाषाः - यह शरीर इन्द्रिय विषयों का नियत स्थान है और मन का निवासस्थान है, इन्द्रियों के विषयों और मन की वासनाओं से घिरा हुआ है, इसलिए उपासक इससे भिन्न-अध्यात्ममार्ग का अवलम्बन करके स्ववशवर्ती आनन्दों को प्राप्त करे ॥७॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

प्रेय मार्ग को छोड़कर, श्रेयो मार्ग का आक्रमण

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (इदम्) = हमारा यह शरीररूप गृह (अपाम्) = कर्मों का (न्ययनम्) = निश्चितरूप से निवास-स्थान हो। हम सदा क्रियाशील हों। समुद्रस्य [स+मुद्] आनन्दमय प्रभु का यह (निवेशनम्) = गृह बने । जहाँ क्रियाशीलता होती है, वहीं प्रभु का वास होता है । [२] (इतः) = यहाँ से (अन्यं पन्थाम्) = भिन्न मार्ग को (कृणुष्व) = तू बना । इस संसार का मार्ग 'प्रेय मार्ग' कहलाता है । उस मार्ग में 'शतायु पुत्र पौत्र, पशु - हिरण्य- भूमि, नृत्यगीतवाद्य, व दीर्घजीवन' हैं । वहाँ आनन्द ही आनन्द प्रतीत होता है । परन्तु इसमें न फँसकर हम श्रेय मार्ग को अपनानेवाले हों। इसी मार्ग में परमात्मदर्शन होता है, और वास्तविक आनन्द प्राप्त होता है । (तेन) = उस मार्ग से (वशान् अनु) = इन्द्रियों को वश में करने के अनुसार तू (याहि) = चल । इन्द्रियों को वश में करके तू श्रेय मार्ग पर चल और परमात्मदर्शन करनेवाला बन ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम क्रियाशील बनकर अपने इस शरीर को प्रभु का बनायें । प्रेय मार्ग को छोड़कर श्रेयो मार्ग को अपनायें। जितेन्द्रिय बनकर श्रेयो मार्ग पर ही चलें ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इदम्-अपां न्ययनम्) इदं शरीरं कामानाम् “आपो वै-सर्वे कामाः” [श० १०।५।४।१५] नियतस्थानं (समुद्रस्य निवेशनम्) मनसः “मनो वै-समुद्रः” [श० ७।५।२।५२] निवासः (इतः-अन्यं पन्थां कृणुष्व) अस्माद्भिन्नं मार्गम्-अध्यात्ममार्गं कुरु-सम्पादय (तेन वशान्-अनु याहि) तेन मार्गेण स्ववशवर्तिनः-आनन्दान्-अनु प्राप्नुहि-अनुभव ॥७॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - This is the vast reservoir of waters, bottomless bound of the sea. Agni, create some other higher path from these here, so you may proceed to the fulfilment of your heart’s desire.