प्रेय मार्ग को छोड़कर, श्रेयो मार्ग का आक्रमण
पदार्थान्वयभाषाः - [१] (इदम्) = हमारा यह शरीररूप गृह (अपाम्) = कर्मों का (न्ययनम्) = निश्चितरूप से निवास-स्थान हो। हम सदा क्रियाशील हों। समुद्रस्य [स+मुद्] आनन्दमय प्रभु का यह (निवेशनम्) = गृह बने । जहाँ क्रियाशीलता होती है, वहीं प्रभु का वास होता है । [२] (इतः) = यहाँ से (अन्यं पन्थाम्) = भिन्न मार्ग को (कृणुष्व) = तू बना । इस संसार का मार्ग 'प्रेय मार्ग' कहलाता है । उस मार्ग में 'शतायु पुत्र पौत्र, पशु - हिरण्य- भूमि, नृत्यगीतवाद्य, व दीर्घजीवन' हैं । वहाँ आनन्द ही आनन्द प्रतीत होता है । परन्तु इसमें न फँसकर हम श्रेय मार्ग को अपनानेवाले हों। इसी मार्ग में परमात्मदर्शन होता है, और वास्तविक आनन्द प्राप्त होता है । (तेन) = उस मार्ग से (वशान् अनु) = इन्द्रियों को वश में करने के अनुसार तू (याहि) = चल । इन्द्रियों को वश में करके तू श्रेय मार्ग पर चल और परमात्मदर्शन करनेवाला बन ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम क्रियाशील बनकर अपने इस शरीर को प्रभु का बनायें । प्रेय मार्ग को छोड़कर श्रेयो मार्ग को अपनायें। जितेन्द्रिय बनकर श्रेयो मार्ग पर ही चलें ।