पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र के अनुसार वासनाओं को काटकर हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव ! (यद्) = जब (बाहू) = [बाह्य प्रयत्ने] इहलोक व परलोक सम्बन्धी प्रयत्नों को (अनुमर्मृजान:) = क्रमशः शुद्ध करता हुआ (न्यड्) = नीचे से (उत्तानाम्) = उत्कृष्ट (भूमिम्) = भूमि को (अन्वेषि) = तू प्राप्त होता है । जितना-जितना प्रयत्नों का शोधन, उतना उतना उत्तम भूमि का आक्रमण [ उतना उतना उत्त्थान] । [२] उस समय इस व्यक्ति के (बहवः रथासः) = ये स्थूल, सूक्ष्म व कारण शरीर रूप रथ (एकं नियानम्) = उस अद्भुत [ cowpen] बाड़े में, प्रभु में स्थित होते हैं और (अस्य) = इसकी (श्रेणयः) = भूतपञ्चक, प्राणपञ्चक, कर्मेन्द्रियपञ्चक, ज्ञानेन्द्रियपञ्चक व अन्तःकरणपञ्चक [हृदय, मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार] आदि श्रेणियाँ (प्रति ददृशे) = एक-एक करके देखी जाती हैं। ये प्रत्येक श्रेणि का ध्यान करता हुआ उन्हें मलिन व क्षीण शक्ति नहीं होने देता।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - अपने कर्मों या शोधन करते हुए हम ऊपर और ऊपर उठें। हम अपने रथों का बाड़ा प्रभु को ही बनायें, अर्थात् इन शरीरों को प्रभु में स्थापित करने का प्रयत्न करें । अन्तःकरण आदि एक-एक अंग का ध्यान करें। उन्हें मलिन न होने दें।