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देवता: यमः ऋषि: यमः छन्द: अनुष्टुप् स्वर: गान्धारः

त्रिक॑द्रुकेभिः पतति॒ षळु॒र्वीरेक॒मिद्बृ॒हत् । त्रि॒ष्टुब्गा॑य॒त्री छन्दां॑सि॒ सर्वा॒ ता य॒म आहि॑ता ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

trikadrukebhiḥ patati ṣaḻ urvīr ekam id bṛhat | triṣṭub gāyatrī chandāṁsi sarvā tā yama āhitā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्रिऽक॑द्रुकेभिः । प॒त॒ति॒ । षट् । उ॒र्वीः । एक॑म् । इत् । बृ॒हत् । त्रि॒ऽस्तुप् । गा॒य॒त्री । छन्दां॑सि । सर्वा॑ । ता । य॒मे । आऽहि॑ता ॥ १०.१४.१६

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:14» मन्त्र:16 | अष्टक:7» अध्याय:6» वर्ग:16» मन्त्र:6 | मण्डल:10» अनुवाक:1» मन्त्र:16


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (एकम्-इत्-बृहत् त्रिकद्रुकेभिः-षड् उर्वीः पतति) स्वभाव तथा निज स्वतन्त्रता में किसी की अपेक्षा न करनेवाला एक अकेला काल ‘भूत वर्तमान भविष्यत्’ इन तीन कालचक्रों से ऋतुरूप छः भूमियों को प्राप्त होता है (त्रिष्टुब् गायत्री ता सर्वा छन्दांसि यमे-आहिता) द्यावापृथिवी और सारी दिशाएँ अर्थात् अन्तरिक्ष काल के अन्दर ही रखे हुए हैं ॥१६॥
भावार्थभाषाः - काल ‘भूत वर्तमान भविष्यत्’ रूप तीनों चक्रों द्वारा छः ऋतुओं में विभक्त हो जाता है। न केवल प्राणियों के लिये ही यह काल यमन करनेवाला है, अपितु पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्यौ एवं तीनों लोकों अर्थात् सम्पूर्ण भुवन समय के नियन्त्रण में रहता है, अत एव समय का परिज्ञान और उस के उचित लाभ उठाना चाहिये ॥१६॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

त्रि-कद्रुक

पदार्थान्वयभाषाः - [१] मन्त्र का ऋषि 'वैवस्वत यम' अर्थात् ज्ञान की किरणों वाला संयमी पुरुष त्(रिकद्रुकेभिः) = [कदि आह्वाने] तीनों कालों में प्रभु के आह्वान के साथ (पतति) = चलता है, प्रातः, मध्याह्न व सायं तीनों समय प्रभु की प्रार्थना करता है । अथवा जीवन के प्रातः सवन में, प्रथम २४ वर्षों में, जीवन के माध्यान्दिन सवन में, मध्यम ४४ वर्षों में, और जीवन के सायन्तन सवन, अन्तिम ४८ वर्षों में यह प्रभु प्रार्थना से अपने को पृथक् नहीं करता । [२] 'ज्योति: गौ: आयु: ' नामक तीन याग विशेष 'त्रिकद्रुक' कहलाते हैं। यह यम इन यागों को करता हुआ जीवन में चलता है। यह स्वाध्याय के द्वारा ज्ञान ज्योति का सम्पादन करता है, प्राण - साधना द्वारा गौओं अर्थात् इन्द्रियों को बड़ा शुद्ध बनाता है और क्रियाशीलता के द्वारा दीर्घजीवन को प्राप्त करता है अथवा उत्तम आयुष्यवाला होता है। [३] इसके जीवन में (षड् ऊर्वीः) = 'द्यौश्च पृथिवी च आपश्च ओषधयश्च ऊर्क् च सूनृता च' द्युलोक अर्थात् ज्ञानदीप्त मस्तिष्क, पृथिवी अर्थात् विस्तृत शक्ति सम्पन्न शरीर, आपः-अर्थात् रेतस् [ आपः रेतो भूत्वा], ओषधयः - अर्थात् दोषों का दहन करनेवाले सात्त्विक अन्न, ऊर्क् = बल और प्राणशक्ति और सूनृता प्रिय सत्यभक्ति का वाणी, ये छः ऊर्वियाँ (आहिताः) = स्थापित होती हैं, [४] (एकम्) = शरीर में केन्द्र स्थान में स्थापित सब से महत्त्वपूर्ण साधन मन [हृदय] (इत्) = निश्चय से (बृहत्) = बड़ा व विशाल होता है, [५] और अन्त में (त्रिष्टुप्) = काम-क्रोध-लोभ तीनों को रोक देना, (गायत्री) [ गयाः प्राणाः तान् तत्रे] = प्राणों का रक्षण, (छन्दांसि) = पापों का छादन अर्थात् बुरी वृतियों का दूरीकरण (ता सर्वा) = वे सब बातें (यमे) = इस संयमी पुरुष में (आहिता) [वि] = स्थापित होती हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम सदा प्रभु स्मरण के साथ चलें। हमारे शरीर व मस्तिष्क दोनों ही ठीक हों, जल व ओषधियों का हम प्रयोग करें, प्राणशक्ति व सूनृत वाणी वाले हों। हमारा मन विशाल हो । काम-क्रोध-लोभ को रोकें । प्राणों का रक्षण करें। पापों से अपने को दूर रखें। सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से होता है कि नियामक प्रभु का हम हवि के द्वारा उपासन करें,[१] सदा प्रभु से उपदिष्ट मार्ग पर चलें, [२] हम स्वार्थ त्याग वाले व आत्मतत्त्व का धारण करनेवाले बनें, [३] हमारा शरीर प्रस्तर तुल्य हो, [४] सत्संगों व यज्ञों में हमारी स्थिति हो, [५] सत्संग से सुमति व सौमनस की हमें प्राप्ति हो, [६] हम संयमी व द्वेषशून्य बनें, [७] बुराई को छोड़कर अपने घर ब्रह्मलोक की ओर चलें, [८] प्रभु कृपा से हमारी यात्रा पूर्ण हो, [९] उत्तम मार्ग से चलते हुए हम काम-क्रोध को लाँघ जाएँ, [१०] काम-क्रोध को वशीभूत करके हम कल्याण व नीरोगता को प्राप्त करें, [११] वशीभूत काम-क्रोध से हमें उत्तम जीवन प्राप्त हो, [१२] प्रभु प्राप्ति के लिये हम जीवनों को सगुणालंकृत करें, [१३] निर्मल मन वाले, ज्ञानदीप्त मस्तिष्क वाले तथा त्याग पूर्वक उपभोग वाले बनें, [१४] मार्ग-दर्शक ऋषियों के लिये नतमस्तक हों, [१५] सदा प्रभु स्मरण के साथ जीवन में चलें, [१६] हमें पितरों का रक्षण प्राप्त हो ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (एकम्-इत्-बृहत् त्रिकद्रुकेभिः-षड्उर्वीः पतति) एक एव स्वाभाविकः स्वातन्त्र्येण विराजमानः कालः त्रिकद्रुकेभिः-भूतवर्त्तमानभविष्यन्नामकै-स्त्रिचक्रैः  षडुर्वीः भूमिरूपानृतून् प्राप्नोति “उर्वी पृथिवीनाम [निरु०१।१] कद्रुकं चक्रम् “कद् वैकल्ये” [भ्वादिः] एतस्मादौणादिको रुः प्रत्ययस्ततश्च कः (त्रिष्टुप्) द्युलोकः “त्रिष्टुबसौ द्यौः” [श०१।७।२।१५] (गायत्री) पृथिवीलोकः। “या वै सा गायत्र्यासीदियं वै सा पृथिवी” [श०१।४।१।३४] (ता सर्वा छन्दांसि) ताः सर्वा दिशोऽन्तरिक्षलोक इत्यर्थः “छन्दांसि वै दिशः” [श०८।३।१।१२] (यमे) काले विश्वकाले (आहिता) वर्तन्ते ॥१६॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - The great one, supreme, infinite, omnipotent, is One, pervading the variety of existence by three dimensions of time, present, past and future, and by six seasons of the year, three lokas of space, earth, sky and the heavens, and six directions, rules alone. Trishtubh, Gayatri and all other Chhandas abide in the One Word, Aum. All these orders of omniscience, omnipresence and omnipotence abide in One, emerge from That and converge into That, Yama, Time.