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यौ ते॒ श्वानौ॑ यम रक्षि॒तारौ॑ चतुर॒क्षौ प॑थि॒रक्षी॑ नृ॒चक्ष॑सौ । ताभ्या॑मेनं॒ परि॑ देहि राजन्त्स्व॒स्ति चा॑स्मा अनमी॒वं च॑ धेहि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yau te śvānau yama rakṣitārau caturakṣau pathirakṣī nṛcakṣasau | tābhyām enam pari dehi rājan svasti cāsmā anamīvaṁ ca dhehi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यौ । ते॒ । श्वानौ॑ । य॒म॒ । र॒क्षि॒तारौ॑ । च॒तुः॒ऽअ॒क्षौ । प॒थि॒रक्षी॒ इति॑ पथिऽरक्षी॑ । नृ॒ऽचक्ष॑सौ । ताभ्या॑म् । ए॒न॒म् । परि॑ । दे॒हि॒ । रा॒ज॒न् । स्व॒स्ति । च॒ । अ॒स्मै॒ । अ॒न॒मी॒वम् । च॒ । धे॒हि॒ ॥ १०.१४.११

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:14» मन्त्र:11 | अष्टक:7» अध्याय:6» वर्ग:16» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:1» मन्त्र:11


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यम ते यौ रक्षितारौ चतुरक्षौ पथिरक्षी नृचक्षसौ श्वानौ) हे समय ! तेरे जो रक्षक चारप्रहररूप चार आँखोंवाले मार्गपाल प्राणियों के सदा दर्शक श्वान तुल्य प्रत्येक जीव के पीछे-पीछे चलनेवाले दिन और रात हैं (ताभ्याम्-एनं परिदेहि) उन दिन-रातों के साथ इस जीव को पुनर्जन्म के लिये छोड़ (राजन्-अस्मै स्वस्ति च-अनमीवं च धेहि) हे राजन् ! इस जीव के लिये सत्तारूप स्वस्ति और नीरोगता का सम्पादन कर ॥११॥
भावार्थभाषाः - जीव का जीवनसमय समाप्त हो जाने पर फिर से नया जीवन मिलता है, जो कि शुद्ध और स्वस्थ होकर दिन-रात के साथ पुनर्वहन करता है ॥११॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

उपादेय 'काम-मन्यू' [स्वस्ति व अनमीव]

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (यम) = सर्वनियन्ता प्रभो ! (यौ) = जो (ते) = आपके (श्वानौ) = [श्वि गतिवृद्धयौः ] गति द्वारा वृद्धि के कारणभूत (रक्षितारौ) = हमारे जीवन की रक्षा करनेवाले, (चतुरक्षौ) = सदा सावधान, (पथिरक्षी) = मार्ग के रक्षक व (नृचक्षसौ) = [Look after = चक्ष्] मनुष्यों का पालन करनेवाले काम व क्रोध हैं, (ताभ्याम्) = उन देवों के लिये (एनम्) = इस पुरुष को (परिदेहि) = प्राप्त कराइये । (च) = और हे (राजन्) = संसार के शासक व व्यवस्थापक प्रभो ! इन रक्षक काम व क्रोध के द्वारा (अस्मै) = इस पुरुष के लिये (स्वस्ति) = उत्तम स्थिति को, कल्याण को (च) = तथा (अनमीवम्) = नीरोगता को (धेहि) = धारण करिये। [२] 'काम-क्रोध' प्रबल हुए तो ये मनुष्य को समाप्त कर देनेवाले हैं। काम उसके शरीर को जीर्ण करता है तो क्रोध उसके मन को अशान्त बना देता है। ये ही 'काम-क्रोध' सीमा के अन्दर बद्ध होने पर मनुष्य के रक्षक व पालक [रक्षितारौ नृचक्षसौ] हो जाते हैं। काम उसे वेदाद्विगम [= ज्ञान प्राप्ति] व वैदिक कर्मयोग उत्तम कर्मों में लगाकर [काम्यो हि वेदाधिगमः कर्मयोगश्च वैदिकः मनु] (स्वस्ति) = उत्तम स्थिति प्राप्त कराता है। और मर्यादित क्रोध ही मन्यु है [यह मन्यु उसे उपद्रवों से आक्रान्त नहीं होने देता] इस प्रकार ये काम व मन्यु उस 'यम राजा' के द्वारा हमारे कल्याण के लिये हमारे में स्थापित किये जाते हैं । चाहते हुए हम आगे बढ़ते हैं [काम्य] और जैसे फुंकार मारता हुआ साँप सब प्राणियों से किये जानेवाले उपद्रवों से जैसे बचा रहता है, उसी प्रकार हम भी उचित क्रोध को अपनाकर 'अनमीव' बने रहते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - सामान्यतः अतिमर्याद रूप में विनाशक काम-क्रोध हमारे लिये संयत रूप में होकर "स्वस्ति व अनमीव' को सिद्ध करें।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यम ते यौ रक्षितारौ चतुरक्षौ पथिरक्षी नृचक्षसौ श्वानौ) हे यम ! तव यौ रक्षकौ चतुष्प्रहरकौ पथिरक्षी-मार्गपालौ, नृचक्षसौ-नृणां मनुष्याणां द्रष्टारौ, श्वानौ-श्वानाविव पृष्ठगामिनावहोरात्रौ स्तः (ताभ्याम्-एनं परिदेहि) ताभ्यामहोरात्राभ्यामेनमेतं जीवं परिदेहि पुनर्जन्मार्थं समर्पय (राजन्-अस्मै स्वस्ति च-अनमीवं च धेहि) हे राजन् ! अस्मै जीवाय स्वस्ति च नैरोग्यं च धेहि-सम्पादय ॥११॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O time, those two day and night are your guardian sentinels of twelve hour duration each, all watching, protective companions of humanity on way. O ruling lord of light, to their care entrust this soul. Let there be peace and well being for it all round, bless it with good health and freedom from sin and ailment.