उपादेय 'काम-मन्यू' [स्वस्ति व अनमीव]
पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (यम) = सर्वनियन्ता प्रभो ! (यौ) = जो (ते) = आपके (श्वानौ) = [श्वि गतिवृद्धयौः ] गति द्वारा वृद्धि के कारणभूत (रक्षितारौ) = हमारे जीवन की रक्षा करनेवाले, (चतुरक्षौ) = सदा सावधान, (पथिरक्षी) = मार्ग के रक्षक व (नृचक्षसौ) = [Look after = चक्ष्] मनुष्यों का पालन करनेवाले काम व क्रोध हैं, (ताभ्याम्) = उन देवों के लिये (एनम्) = इस पुरुष को (परिदेहि) = प्राप्त कराइये । (च) = और हे (राजन्) = संसार के शासक व व्यवस्थापक प्रभो ! इन रक्षक काम व क्रोध के द्वारा (अस्मै) = इस पुरुष के लिये (स्वस्ति) = उत्तम स्थिति को, कल्याण को (च) = तथा (अनमीवम्) = नीरोगता को (धेहि) = धारण करिये। [२] 'काम-क्रोध' प्रबल हुए तो ये मनुष्य को समाप्त कर देनेवाले हैं। काम उसके शरीर को जीर्ण करता है तो क्रोध उसके मन को अशान्त बना देता है। ये ही 'काम-क्रोध' सीमा के अन्दर बद्ध होने पर मनुष्य के रक्षक व पालक [रक्षितारौ नृचक्षसौ] हो जाते हैं। काम उसे वेदाद्विगम [= ज्ञान प्राप्ति] व वैदिक कर्मयोग उत्तम कर्मों में लगाकर [काम्यो हि वेदाधिगमः कर्मयोगश्च वैदिकः मनु] (स्वस्ति) = उत्तम स्थिति प्राप्त कराता है। और मर्यादित क्रोध ही मन्यु है [यह मन्यु उसे उपद्रवों से आक्रान्त नहीं होने देता] इस प्रकार ये काम व मन्यु उस 'यम राजा' के द्वारा हमारे कल्याण के लिये हमारे में स्थापित किये जाते हैं । चाहते हुए हम आगे बढ़ते हैं [काम्य] और जैसे फुंकार मारता हुआ साँप सब प्राणियों से किये जानेवाले उपद्रवों से जैसे बचा रहता है, उसी प्रकार हम भी उचित क्रोध को अपनाकर 'अनमीव' बने रहते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - सामान्यतः अतिमर्याद रूप में विनाशक काम-क्रोध हमारे लिये संयत रूप में होकर "स्वस्ति व अनमीव' को सिद्ध करें।