पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अस्मै) = इस ठीक मार्ग पर चलनेवाले पुरुष के लिए (वायुः) = गति के द्वारा सब बुराइयों का हिंसन करनेवाला प्रभु (उपामन्थत्) = समीपता से ज्ञान का मन्थन करनेवाला होता है । अर्थात् हृदयस्थ प्रभु इसे ज्ञान के देनेवाले होते हैं । (कुनन्नमा) = [ कुत्सितं भृशं नमयति] सब बुराइयों को बुरी तरह से पीस डालनेवाली यह वेदवाणी (पिनष्टि स्मा) = इसकी सब बुराइयों को पीस डालती है । [२] (यद्) = जब केशी प्रभु से प्राप्त ज्ञान के प्रकाशवाला व्यक्ति (रुद्रेण सह) = रुद्र के साथ, उस प्रभु के साथ (पात्रेण) = शरीर रक्षण के हेतु से (विषस्य) = जल का, शरीरस्थ रेतः कणों का (अपिबत्) = पान करता है। रुद्र के साथ पान करने का अभिप्राय यह है कि प्रभु स्मरण से वासना विनष्ट होती है और वासना विनाश इस विष के पान का साधन बन जाता है। यह विष शरीर में व्यापन के योग्य है, इसकी व्याप्ति के होने पर शरीर में किसी प्रकार का रोग नहीं आ पाता ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु उपासक को वेदज्ञान देते हैं। वेद इसकी वासनाओं को पीस डालता है । वासना विनाश के होने पर प्रभु स्मरण करता हुआ व्यक्ति शरीर में रेतः कणों का रक्षण कर पाता है । सम्पूर्ण सूक्त शरीर में रेतः कणों के पान के द्वारा जीवन को पवित्र करते हुए प्रभु प्राप्ति का उल्लेख कर रहा है। अगला सूक्त भी सप्त ऋषियों का है। गत सूक्त में एक-एक मन्त्र का एक- एक ऋषि था । प्रस्तुत सूक्त में सब मन्त्रों के सब ऋषि है। सो 'सप्त ऋषयः एकर्चा: ' लिखा गया है। ये सप्त ऋषि हैं, 'भरद्वाज'-शक्ति को अपने में भरना। 'कश्यप'- ज्ञानी बनना, 'गोतम'= =प्रशस्त इन्द्रियोंवाला होना । 'अत्रि' काम-क्रोध-लोभ से ऊपर उठना। 'विश्वामित्र'- सब के साथ स्नेह से चलना । 'जमदग्नि' जाठराग्नि का ठीक होना। 'वसिष्ठः 'अपने निवास को उत्तम बनाना। ये सब बातें स्वास्थ्य के साथ कार्यकारणरूप से सम्बद्ध हैं। एक वाक्य में कहा जाये तो यही कहेंगे कि 'पूर्ण स्वस्थ बनना' । इसी का उल्लेख इस रूप में प्रारम्भ करते हैं-