पदार्थान्वयभाषाः - [१] यह साधक (वातस्य) = वायु का, प्राणों का (अश्वः) = [अश भोजने] खानेवाला होता है । 'अभक्षः, वायुभक्ष:' इस वाक्य में पतञ्जलि ने 'वातस्याश्वः' का भाव व्यक्त कर ही दिया है। 'प्रातःकाल हवा खाने जाना' यह वाक्य बोलचाल में प्रयुक्त होता ही है । प्राणायाम का अभ्यास ही 'वातस्य अश्वः' बनना है । इस अभ्यास से यह (वायोः सखा) = उस गति के द्वारा सब बुराइयों के गन्ध [हिंसन] को करनेवाले प्रभु का मित्र होता है। प्राणसाधना इसके हृदय को निर्मल करती है, उस निर्मल हृदय में यह प्रभु का दर्शन करता है । [२] (अध) = अब, इस प्रभु-दर्शन के होने पर यह (देवेषितः) = उस देव से प्रेरित होता है, प्रभु की प्रेरणा को सुनता है । (मुनि:) = विचारशील बनता है । इस प्रभु की प्रेरणा को सुनकर और विचारशील बनकर यह (उभौ समुद्रौ) = दोनों समुद्रों में (आक्षेति) = निवास करता है (यः च पूर्व:) = जो पहला समुद्र है (उत) = और (अपरः) = जो पिछला समुद्र है । स सद्य एति पूर्वस्यादुतरं समुद्रम्' इस मन्त्र भाग के अनुसार यहां दो समुद्रों का अभिप्राय 'ब्रह्मचर्य और गृहस्थ' से है । ब्रह्मचर्याश्रम के बाद यह गृहस्थ में प्रवेश करता है। गृहस्थ में भी संयम से चलता हुआ यह ब्रह्मचारी ही होता है। इस प्रकार यह गृहस्थ को ब्रह्मचर्य से मिला देता है । यहाँ दोनों समुद्रों का भाव 'ज्ञान-विज्ञान' भी लिया जा सकता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्राणसाधना के द्वारा हम प्रभु के मित्र बनें। प्रभु प्रेरणा को सुनते हुए जीवन को ठीक प्रकार से बिताएँ ।