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अ॒न्तरि॑क्षेण पतति॒ विश्वा॑ रू॒पाव॒चाक॑शत् । मुनि॑र्दे॒वस्य॑देवस्य॒ सौकृ॑त्याय॒ सखा॑ हि॒तः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

antarikṣeṇa patati viśvā rūpāvacākaśat | munir devasya-devasya saukṛtyāya sakhā hitaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒न्तरि॑क्षेण । प॒त॒ति॒ । विश्वा॑ । रू॒पा । अ॒व॒ऽचाक॑शत् । मुनिः॑ । दे॒वस्य॑ऽदेवस्य । सौकृ॑त्याय । सखा॑ । हि॒तः ॥ १०.१३६.४

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:136» मन्त्र:4 | अष्टक:8» अध्याय:7» वर्ग:24» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:4


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (मुनिः) मननीय सूर्य (अन्तरिक्षेण पतति) आकाश से प्राप्त होता है (देवस्य देवस्य) प्रत्येक ग्रह के (विश्वा रूपा) सब रूपों को (अवचाकशत्) प्रकाशित करता है (सौकृत्याय) शोभन गति कार्य के हेतु (सखा हितः) सखा बना हुआ ॥४॥
भावार्थभाषाः - सूर्य आकाश में प्राप्त होता है, तो प्रत्येक ग्रह के सब रूपों को प्रकाशित करता है उनके सुन्दर गतिकार्य के लिये सखा बना हुआ ॥४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

मध्यमार्ग से चलना

पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र का प्राणसाधक (अन्तरिक्षेण पतति) = सदा मध्य मार्ग से चलता है। 'युक्ताहार विहार' बनता है । प्राणायाम का लाभ इस युक्तचेष्ट पुरुष को ही होता है। यह (विश्वारूपा अवचाकशत्) = सब पदार्थों को सूक्ष्मता से देखता है, उनके तत्त्व को जानता हुआ उनका ठीक ही प्रयोग करता है । [२] (मुनिः) = यह मौन के साथ मनन करनेवाला होता है। इस चिन्तन का ही परिणाम है कि यह (देवस्य देवस्य) = प्रत्येक इन्द्रिय के (सौकृत्याय) = उत्तम कृत्य के लिए होता है । इसकी सब इन्द्रियाँ शुभ ही कर्मों को करनेवाली होती हैं। यह सबका (सखा) = मित्र होता है। और (हितः) = सबके हित की कामना व करणीवाला होता है । यह कभी दूसरों के अहित के दृष्टिकोण से कार्यों को नहीं करता।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्राणसाधक सदा मध्यमार्ग से चलता है। विचारशील होता है, सदा सबका हित करने की वृत्तिवाला होता है।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (मुनिः) मननीयः सूर्यः (अन्तरिक्षेण पतति) अन्तरिक्षेण गच्छति प्राप्नोति वा (देवस्य देवस्य) प्रत्येकग्रहस्य (विश्वा रूपा-अवचाकशत्) सर्वाणि रूपाणि प्रकाशयति (सौकृत्याय) शोभनगतिकार्यस्य हेतवे (सखा हितः) सखा हितः सन् ॥४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - The sun which is an object of meditative realisation flies through space, illuminating and watching the forms of heavenly bodies in the solar system. It itself is placed in orbit by the divine spiritual energy of the cosmos for the sake of harmony among the heavenly objects of the cosmic system.$(So does the soul vibrate in the microcosmic system illuminating, the intelligence and energising the mind and senses and the pranas to achieve the individual’s harmony with himself and the totality of existence.)