पदार्थान्वयभाषाः - [१] (इदम्) = यह शरीर वस्तुतः (यमस्य) = संयमी पुरुष का (सादनम्) = बैठने का स्थान है । प्रभु ने संयमी को ही निवास स्थान के रूप में प्राप्त कराया है। इसमें रहकर हमें संयम से ही चलना चाहिए। इसे भोग-विलास का साधन न बना देना चाहिए। यह वह 'सादन' है (यत्) = जो ('देवमानं') = देवमान इस नाम से (उच्यते) = कहा जाता है। यह देवताओं के निर्माण का स्थान है । 'सर्वा ह्यस्मिन् देवताः गावो गोष्ठ इवासते' सब देव तो इसमें रहते हैं। इन देवों के निवास के लिए ही इसका निर्माण हुआ है। [२] संयमी पुरुषों के द्वारा (अस्य) = इस देवमान नामक शरीर-गृह की (इयं नाडी:) = यह नाड़ी (धम्यते) = प्राणाग्नि के सम्पर्कवाली की जाती है । अर्थात् इस शरीर में रहकर अभ्यासी लोग प्राणसाधना करते हुए उस उस नाड़ी में प्राणों के निरोध के लिए यत्नशील होते हैं। इस प्रकार उस-उस नाड़ी को प्राणाग्नि के सम्पर्कवाला करते हैं । प्राणाग्नि के सम्पर्क से उसका पूर्ण शोधन हो जाता है । [३] (अयम्) = यह 'देवमान' नामक गृह में रहनेवाला व्यक्ति (गीर्भि:) = ज्ञान की वाणियों से व स्तुति - वचनों से (परिष्कृतः) = परिष्कृत व सुन्दर जीवनवाला बनता है। ज्ञान व ध्यान उसके जीवन को चमका देते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - इस शरीर में हमें संयमपूर्वक निवास करना है। इसे दिव्यगुणों की उत्पत्ति का स्थान बनाना है। इसकी नाड़ियों को प्राणाग्नि के द्वारा संतप्त करके शुद्ध करना है। ज्ञान व ध्यान से जीवन को परिष्कृत करना है। यह सूक्त इस बात पर बल देता है कि हम शरीर को 'पुरा अपि नव: ' सदा नवीन बनाए रखें। इसको एक रथ के रूप में देखें जिसकी बागडोर प्रभु के हाथ में है । इसे हम प्रभु को ठीक रूप में वापिस करनेवाले हों। और अन्त में इस शरीर को 'देवमान' समझकर चलें। इसे देवमान बनाने के लिए इसकी नाड़ियों को प्राणाग्नि से संयोग करें, अर्थात् प्राणायाम के अभ्यासी हों, अगले सूक्त के ऋषि ये प्राणायाम की अभ्यासी 'वातरशनाः मुनयः ' हैं, वात को, प्राण को ही अपनी मेखला बनानेवाले, मौनवृत्ति से चलनेवाले । ये बोलते कम हैं, क्रियामय जीवन को बिताते हैं । क्रियाशील होने से 'जूति', वायु की तरह निरन्तर क्रियाशील होने से 'वातजूति', ज्ञानपूर्वक क्रिया करने के कारण 'वि प्रजूति' तथा [वृष-अन] सुखवर्षक जीवनवाला बनने से यह 'वृषाणक' कहलाता है। निरन्तर क्रियाशीलता के कारण ही 'करिक्रतः ' है । क्रियाशीलता के कारण ही यह ' एतश' चमकता हुआ होता है [shining] । यह बुराइयों का संहार करने के कारण 'ऋष्यशृङ्ग' कहलाता है [ऋष् to kill], इसका ज्ञान इसकी बुराइयों का विध्वंस करता है। 'यह अपने जीवन में क्या करता है' ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि-