पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र के अनुसार (यम) = नियन्ता बनकर (देवाः) = हे देवो ! हम (नकिः मिनीमसि) = नाममात्र भी कर्तव्य को हिंसित नहीं करते हैं। (नकिः) = ना ही (आयोपयामसि) = [obliterate, blot out ] प्रमादवश किसी कर्त्तव्य को विस्मृत करते हैं । (मन्त्रश्रुत्यम्) = मन्त्रों में सुने गये अपने कर्त्तव्यों का (चरामसि) = पालन करते हैं । [२] (पक्षेभिः) = ज्ञानों के परिग्रहों से, अधिक से अधिक ज्ञान के ग्रहण के द्वारा (अपिकक्षेभिः) = कटिबद्धताओं के द्वारा, कर्त्तव्यों को करने के लिए कमर को कसने के द्वारा (अत्र) = यहाँ जीवन में (अभिसंरभामहे) = हम अभ्युदय व निःश्रेयस दोनों के दृष्टिकोणों से [अभि] कार्यों का प्रारम्भ करते हैं। ज्ञान व दृढ़ निश्चय से किये गये कार्य अवश्य सफल होते ही हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - अपना नियमन करते हुए हम कर्त्तव्यों का पालन करते हैं। श्रुति के प्रतिकूल हमारा आचरण नहीं होता। ज्ञान व दृढ़निश्चय के साथ हम ऐहिक व आमुष्मिक धर्म का पालन करते हैं । सूक्त की संक्षेप में भावना यह है कि यदि हम अपने आचरण को अच्छा बनायेंगे तो प्रकृति का एक-एक पिण्ड हमारे लिए उस प्रभु की महिमा को व्यक्त करेगा । सो हमें यम, यम ही क्या 'यामायन' [यमस्य अपत्यम्] बनना चाहिए। यह यामायन 'कुमार' होता है । सब बुराइयों को मारनेवाला बनता है। यह 'यामायन कुमार' ही अगले सूक्त का ऋषि है। इस यम का वर्णन करते हुए कहते हैं कि-