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देवता: इन्द्र: ऋषि: सुदाः पैजवनः छन्द: शक्वरी स्वर: धैवतः

वि षु विश्वा॒ अरा॑तयो॒ऽर्यो न॑शन्त नो॒ धिय॑: । अस्ता॑सि॒ शत्र॑वे व॒धं यो न॑ इन्द्र॒ जिघां॑सति॒ या ते॑ रा॒तिर्द॒दिर्वसु॒ नभ॑न्तामन्य॒केषां॑ ज्या॒का अधि॒ धन्व॑सु ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vi ṣu viśvā arātayo ryo naśanta no dhiyaḥ | astāsi śatrave vadhaṁ yo na indra jighāṁsati yā te rātir dadir vasu nabhantām anyakeṣāṁ jyākā adhi dhanvasu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वि । सु । विश्वा॑ । अरा॑तयः । अ॒र्यः । न॒श॒न्त॒ । नः॒ । धियः॑ । अस्ता॑ । अ॒सि॒ । शत्र॑वे । व॒धम् । यः । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । जिघां॑सति । या । ते॒ । रा॒तिः । द॒दिः । वसु॑ । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒केषा॑म् । ज्या॒काः । अधि॑ । धन्व॑ऽसु ॥ १०.१३३.३

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:133» मन्त्र:3 | अष्टक:8» अध्याय:7» वर्ग:21» मन्त्र:3 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:3


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (विश्वाः) सब (अर्यः) आक्रमणकारी (अरातयः) अदानशील अपितु वञ्चनशील शत्रुजातियाँ (सु वि नशन्त) भलीभाँति विनष्ट हों (इन्द्र) हे राजन् ! (नः-धियः) हमारे कर्म तेरे लिए हैं (यः-नः) जो हमें (जिघांसति) मारना-चाहता है, (शत्रवे) उस शत्रु के लिए (वधम्) वधसाधन शस्त्र को (अस्ता) फेंकनेवाला (असि) तू है (ते या रातिः) तेरी जो दानप्रवृत्ति है या दानशक्ति है, वह (नः-वसु ददिः) हमें धनों की देनेवाली हो (नभन्ताम्०) पूर्ववत् ॥३॥
भावार्थभाषाः - आक्रमणकारी शत्रु नष्ट हो जावें, ऐसा राजा को यत्न करना चाहिए, प्रजा भी उसका पूरा सहयोग दे, जिससे कि राजा शत्रुओं पर प्रहार करके उन्हें नष्ट कर दे और प्रजा के लिए सुख सम्पत्ति का दान करे ॥३॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

वज्र प्रहार व धन-प्रहार

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (विश्वाः) = सब (अरातयः) = न देने की वृत्तिवाले, कृपण वृत्तिवाले, (अर्यः) = शत्रु (सु) = अच्छी प्रकार विनशन्त नष्ट हो जाएँ । (नः) = हमें (धियः) = ज्ञानपूर्वक किये जानेवाले कर्म [ धी-कर्म-ज्ञान] (नशन्त) = प्राप्त हों । शत्रुभय में मस्तिष्क भी कार्य ठीक से नहीं करता । शत्रु भय के न होने पर हमारे सब कार्य बुद्धिपूर्वक हों। [२] हे (इन्द्र) = सेनापते ! (यः) = जो (नः) = हमें (जिघांसति) = मारना चाहता है, उस (शत्रवे) = शत्रु के लिए तू (वधम्) = वज्र को (अस्तासि) = फेंकनेवाला है। और समय-समय पर (या) = जो (ते) = तेरी (रातिः) = दानशीलता है, उसे भी तू शत्रु के लिए फेंकनेवाला होता है । अर्थात् धन को देकर भी तू शत्रुओं पर विजय पाने का प्रयत्न करता है। कई बार जो कार्य तोपों के गोलों से नहीं होता वह सोने के एक भार से हो जाता है। इसलिए आवश्यकता होने पर तू (वसु ददिः) = धन को देनेवाला होता है। इस प्रकार (अन्यकेषां ज्याकाः) = शत्रुओं की डोरियाँ (अधिधन्वसु) = धनुषों पर ही (नभन्ताम्) = नष्ट हो जाएँ ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - शत्रु भय के अभाव में हमारे सब कार्य बुद्धिपूर्वक हों । सेनापति शस्त्रों से व धनों से शत्रु विजय के लिए यत्नशील हो ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (विश्वाः-अरातयः-अर्यः-सु वि नशन्त) सर्वा आगन्त्र्य आक्रमणकर्त्र्यः, अदानशीलाः-अपि तु तद्विरुद्धा-वञ्चनशीलाः शत्रुभूता जातयः “अरातीरमित्रान्” [निरु० ११।१] सुविनश्यन्तु (इन्द्र नः-धियः) हे राजन् ! अस्माकं कर्माणि त्वदर्थानि सन्ति “धीः कर्मनाम” [निघ० २।१] (यः-नः-जिघांसति) योऽस्मान् हन्तुमिच्छति (शत्रवे वधम्-अस्ता-असि) तस्मै शत्रवे वधसाधनं शस्त्रं प्रक्षेप्ता त्वमसि (ते या रातिः-नः-वसु ददिः) तव या दानप्रवृत्तिः-दानशक्तिः सा-अस्मभ्यं वसूनि धनानि दत्तवती भवतु “दा धातोः-आगमहनजनः किकिनौ लिट् च” [अष्टा० ३।२।१७१] (नभन्ताम्०) पूर्ववत् ॥३॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indra, may the facts and forces of enmity, adversity and ungenerosity be eliminated from life and the world. May all our thoughts and actions be inspired by love and generosity. You strike the thunderbolt of justice and punishment upon the enemy who wants to destroy us or frustrate our love and generosity. May your grace and generosity bring us wealth, honour and excellence of life. Let the strings of enemy bows snap by the tension of their own negativities.