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ई॒जा॒नमिद्द्यौर्गू॒र्ताव॑सुरीजा॒नं भूमि॑र॒भि प्र॑भू॒षणि॑ । ई॒जा॒नं दे॒वाव॒श्विना॑व॒भि सु॒म्नैर॑वर्धताम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ījānam id dyaur gūrtāvasur ījānam bhūmir abhi prabhūṣaṇi | ījānaṁ devāv aśvināv abhi sumnair avardhatām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ई॒जा॒नम् । इत् । द्यौः । गू॒र्तऽव॑सुः । ईजा॒नम् । भूमिः॑ । अ॒भि । प्र॒ऽभू॒षणि॑ । ई॒जा॒नम् । दे॒वौ । अ॒श्विनौ॑ । अ॒भि । सु॒म्नैः । अ॒व॒र्ध॒ता॒म् ॥ १०.१३२.१

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:132» मन्त्र:1 | अष्टक:8» अध्याय:7» वर्ग:20» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:1


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ब्रह्ममुनि

इस सूक्त में यज्ञ से सुवृष्टि शोभन अन्न की उत्पत्ति होती है, अध्यापक उपदेशक अपने ज्ञान से प्रजाजनों को अज्ञान और पाप से बचाते हैं, आदि विषय हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (ईजानम्-इत्) यज्ञ करते हुए को अवश्य (गूर्तवसुः) उद्यत उत्कृष्ट वसु विविध धन जिससे प्राप्त होते हैं, वह ऐसा (द्यौः) द्युलोक (अभि०) भलीभाँति बढ़ाता है (ईजानम्) यज्ञ करते हुए को (प्रभूषणि भूमिः) प्रकृष्ट भूषा के निमित्त पृथिवी बढ़ाती है (ईजानम्) यज्ञ करते हुए को (अश्विनौ देवौ) दिव्यगुणवाले दिन-रात (सुम्नैः) सुखों के द्वारा (अभि वर्धताम्) भलीभाँति बढ़ावें ॥१॥
भावार्थभाषाः - यज्ञ करनेवाले को द्युमण्डल से पुष्ट जल वृष्टि मिलती है, यज्ञ करनेवाले को पृथिवी अच्छी उपज देती है, यज्ञ करनेवाले को दिन-रात सुख सुगन्धवाले होकर समृद्ध करते हैं ॥१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

यज्ञशीलता व सुखी जीवन

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (ईजानम्) = यज्ञशील पुरुष को (इत्) = ही (द्यौ:) = यह द्युलोक (गूर्तावसुः) = उद्यत धनवाला होता है। अर्थात् यज्ञशील पुरुष के लिए ही द्युलोक सदा आवश्यक वसुओं को प्राप्त करानेवाला होता है। (ईजानं अभि) = यज्ञशील पुरुष का लक्ष्य करके ही (भूमि:) = यह पृथिवी (प्रभूषणि) = [prosperity] ऐश्वर्य का निमित्त बनती है । द्युलोक व पृथिवीलोक पिता व माता के समान माने जाते हैं। यज्ञशील पुरुष के लिए ये सब वसुओं व अभ्युदयों को प्राप्त कराते हैं । [२] (ईजानम्) = इस यज्ञशील पुरुष को (अश्विनौ देवौ) = [दिव् द्युति] जीवन को दीप्त बनानेवाले प्राणापान (सुम्नैः) = सुखों से (अभि अवर्धताम्) = इस लोक व परलोक के दृष्टिकोण से बढ़ानेवाले होते हैं। शरीर को नीरोग बनाकर ये प्राणापान ऐहलौकिक सुखों का वर्धन करते हैं और मन को निर्मल बनाकर ये परलोक के सुख को सिद्ध करते हैं। भौतिक व आध्यात्मिक दोनों उन्नतियों का ये कारण बनते हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - यज्ञशील पुरुष के लिए द्युलोक, पृथिवीलोक तथा प्राणापान सभी अनुकूलता के लिए हुए होते हैं ।
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ब्रह्ममुनि

अस्मिन् सूक्ते यज्ञात् सुवृष्टिः शोभनान्नोत्पत्तिश्च भवति अध्यापकोपदेशकौ प्रजाजनान् स्वज्ञानोपदेशेनाज्ञानात् पापाच्च त्रायेते इत्येवमादयो विषया वर्ण्यन्ते।

पदार्थान्वयभाषाः - (ईजानम्-इत्) यज्ञं कुर्वन्तं खलु (गूर्तवसुः-द्यौः-अभिवर्धताम्) उद्यतानि-उत्कृष्टानि वसूनि विविधधनानि यस्याः सा द्यौरभिवर्धयति, (ईजानं प्रभूषणि भूमिः-अभि) यज्ञं कुर्वन्तं प्रकृष्टभूषणनिमित्तम् “प्रपूर्वकाद् भूषधातोरौणादिकः कनिन् प्रत्ययो बाहुलकात्” पृथिवी खल्वभिवर्धयति (ईजानम्-अश्विनौ देवौ सुम्नैः-अभि वर्धताम्) यज्ञं कुर्वन्तमहोरात्रौ दिव्यगुणौ “अश्विनौ-अहोरात्रावित्येके” [निरु० १२।१] विविधसुखैः “सुम्नं सुखनाम” [निघ० ३।६] अभिवर्धयतः ॥१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - May the Heaven of welcome treasures of abundance bless and promote the man of love, non violence and yajna with peace, plenty and joy. May the earth of abundant riches and beauty bless the man of love, charity and yajna with plenty, progress and joy. May the Ashvins, twin divines of nature and humanity, by their systemic complementarities bless and promote the man of dynamic creativity and yajna with personal success, social prestige and divine fulfilment.