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यु॒वं सु॒राम॑मश्विना॒ नमु॑चावासु॒रे सचा॑ । वि॒पि॒पा॒ना शु॑भस्पती॒ इन्द्रं॒ कर्म॑स्वावतम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yuvaṁ surāmam aśvinā namucāv āsure sacā | vipipānā śubhas patī indraṁ karmasv āvatam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यु॒वम् । सु॒राम॑म् । अ॒श्वि॒ना॒ । नमु॑चौ । आ॒सु॒रे । सचा॑ । वि॒ऽपि॒पा॒ना । शु॒भः॒ । प॒ती॒ इति॑ । इन्द्र॑म् । कर्म॑ऽसु । आ॒व॒त॒म् ॥ १०.१३१.४

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:131» मन्त्र:4 | अष्टक:8» अध्याय:7» वर्ग:19» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:4


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) हे सुशिक्षित स्त्री-पुरुष (युवम्) तुम दोनों (सचा) साथ मिलकर (शुभस्पती) अच्छे अलङ्कार के पालक (आसुरे नमुचौ) प्राणों के-नियन्ता जीव शरीर न छोड़नेवाले उस जीवात्मा के निमित्त (सुरामं-विपिपाना) जीवन के सुरमणीय सुखरस को विशेषरूप से पीते हुए (कर्मसु) गृहस्थ कर्मों में (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवान् परमात्मा को अच्छा गृहस्थ चलाने के लिए (आवतम्) कामना करो ॥४॥
भावार्थभाषाः - सुशिषित स्त्री-पुरुष परस्पर मिलकर उत्तम अलङ्कार से सुभूषित हुए अपनी अन्तरात्मा के निमित्त रमणीय सुख का आनन्द लेने के निमित्त गृहस्थकर्मों में परमात्मा को चाहें-उसकी प्रार्थना करें ॥४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सुरामं विपिपाना

पदार्थान्वयभाषाः - [१] 'अश्विना' शरीर में प्राणापान हैं। इनकी साधना से शरीर में सोमशक्ति [वीर्य] की ऊर्ध्वगति होती है। इस सोम-शक्ति को प्रस्तुत मन्त्र में 'सुराम' नाम दिया है। इसके द्वारा जीव उत्तम रमणवाला होता है 'सुष्ठु रमते अनेन' । सोम के रक्षण के होने पर ही सब आनन्द का निर्भर है । इसी से मनुष्य सौम्य स्वभाव का बनता है और अन्ततः प्रभु को पानेवाला बनता है । [२] हे (अश्विना) = प्राणापानो! (युवम्) = आप (सुरामम्) = उत्तम रमण के साधनभूत सोम का (विपिपाना) = विशेषरूप से पान करते हुए, (शुभस्पती) = सब शुभ कर्मों के रक्षक होते हो । सचा परस्पर मिलकर, प्राण-अपान से और अपान प्राण से मिलकर (आसुरे) = असुरों के अधिपति (नमुचौ) = [न युच्] अत्यन्त कठिनता से पीछा छोड़नेवाले इस अहंकार के हनन करनेवाले होते हो। इस असुरेश्वर के मारने के निमित्त ही आपका मेल है। प्राणसाधना से सब मलों का क्षय होते-होते इस आसुर अहंकार वृत्ति का भी ध्वंस हो जाता है । [३] इस आसुर वृत्ति का संहार करके आप (इन्द्रम्) = इस जितेन्द्रिय पुरुष को (कर्मसु) = कर्मों में (आवतम्) = रक्षित करते हो। कर्मों में लगा रहकर यह साधक वासनाओं की ओर नहीं झुकता और पवित्र बना रहकर प्रभु को पानेवाला होता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्राण- साधना से सोम का रक्षण होकर मनुष्य निरहंकार होता है । कर्मशील बना रहकर पवित्र बना रहता है, प्रभु को प्राप्त करता है ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना युवम्) ये अश्विनौ-सुशिक्षितस्त्रीपुरुषौ “अश्विना सुशिक्षितौ स्त्रीपुरुषौ” [यजु० ३८।१२ दयानन्दः] युवां (सचा) सह मिलित्वा (शुभस्पती) स्वलङ्कारपालकौ (आसुरे नमुचौ) असूनां प्राणानामयं नियन्ताऽऽसुरो जीवः स च न मुञ्चति शरीरं न मृत्युं काङ्क्षति तस्मिन् स्वात्मनि (सुरामं विपिपाना) जीवनस्य सुरमणीयं सुखं सुखदानं विशेषेण पिबन्तौ (कर्मसु) गृहस्थकर्मसु (इन्द्रम्-आवतम्) ऐश्वर्यवन्तं परमात्मानं सुगृहस्थभावनाय कामयेथाम् ॥४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O Ashvins, complementary powers of humanity, men and women, scholars and teachers, masters and protectors of the good, valuable and auspicious, well enjoying the soma taste of life together, help and assist Indra, ruler of life in the world, in the struggles of life and society against the demonic forces of want, violence and meanness.