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यो य॒ज्ञो वि॒श्वत॒स्तन्तु॑भिस्त॒त एक॑शतं देवक॒र्मेभि॒राय॑तः । इ॒मे व॑यन्ति पि॒तरो॒ य आ॑य॒युः प्र व॒याप॑ व॒येत्या॑सते त॒ते ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yo yajño viśvatas tantubhis tata ekaśataṁ devakarmebhir āyataḥ | ime vayanti pitaro ya āyayuḥ pra vayāpa vayety āsate tate ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यः । य॒ज्ञः । वि॒श्वतः॑ । तन्तु॑ऽभिः । त॒तः । एक॑ऽशतम् । दे॒व॒ऽक॒र्मेभिः॑ । आऽय॑तः । इ॒मे । व॒य॒न्ति॒ । पि॒तरः॑ । ये । आ॒ऽय॒युः । प्र । व॒य॒ । अप॑ । व॒य॒ । इति॑ । आ॒स॒ते॒ । त॒ते ॥ १०.१३०.१

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:130» मन्त्र:1 | अष्टक:8» अध्याय:7» वर्ग:18» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:1


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ब्रह्ममुनि

इस सूक्त में मुक्तों का ब्राह्मशरीर ब्राह्म सौ वर्षों का होता है, संसार में भौतिक शरीर लोकप्रसिद्ध सौ वर्षों का होता है, इत्यादि विषय कहे हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (यः-यज्ञः) जो सृष्टियज्ञ या पुरुषयज्ञ (तन्तुभिः) परमाणुओं के द्वारा-या नाड़ी तन्तुओं से (विश्वतः) सर्व ओर से (ततः) फैला हुआ (देवकर्मभिः) परमात्मा के रचना आदि कर्मों द्वारा (एकशतम्) सौ वर्ष की आयुवाला ब्रह्मयज्ञ मोक्ष अवधिवाला मानवजीवन की अपेक्षा रखनेवाला शरीरयज्ञ (आयतः) दीर्घ हुआ (इमे पितरः) ये ऋतुएँ या प्राण (वयन्ति) तानते हैं-निर्माण करते हैं (ये-आययुः) जो सर्वत्र प्राप्त होते हैं (प्र वय-अप वय-इति) प्रतान और अपतान के ताने-बाने के जैसे प्रेरणा करते हुए (तते-आसते) सम्यक्तया बने हुए, ब्राह्मशरीरयज्ञ में या पुरुषशरीरयज्ञ में विराजते हैं, रहते हैं ॥१॥
भावार्थभाषाः - सृष्टियज्ञ और शरीरयज्ञ परमाणुओं द्वारा तथा परमात्मा के रचनाकर्मों द्वारा सौ वर्ष की आयुवाला मुक्तिसम्बन्धी ब्राह्मशरीर तथा भौतिक मनुष्यशरीर होता है, ऋतुएँ या प्राण निर्माण करते हैं, ताने-बाने के समान ये सृष्टि में या शरीर में रहते हैं ॥१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सौ वर्षों के दीर्घ यज्ञ का पट रूप में वयन

पदार्थान्वयभाषाः - (जगत्मय) = महान् यज्ञ है जो (विश्वतः तन्तुभिः) = अब ओर प्रकृति के बने विस्तृत तत्त्वों से बना है। वह देव (कर्मेभिः) = जल, भूमि, तेज, आकाश, वायु इन पञ्चभूतों के कर्मों से (एक-शतम् आ-यतः) = बाह्य १०१ वर्षो प्रमाण तक विस्तृत रहता है । (पितरः) = पिताओं के तुल्य विश्व के स्रष्टा नाना प्रजापति जो एक के बाद एक मनु के समान वर्ष, ऋतु आदि रूप में आते हैं वे इस जगत् सर्ग को (वपन्ति) = बुनते हैं । (वे तत्) = इस विस्तृत जगत्-सर्ग रूप पट में (प्र-वय अप- वयं) = ऊपर को बुनो, नीचे को बुनो, इस प्रकार प्रेरणा करते हैं। इस प्रकार से वे संवत्सर ऋतु आदि उस तते विस्तृत काल-पट में विराजते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- पञ्चभूतों से यह सृष्टि विस्तृत हुई है ।
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ब्रह्ममुनि

सूक्तेऽस्मिन् ब्राह्मशरीरं मुक्तानां मोक्षे ब्राह्मशतवार्षिकं भवति संसारे च भौतिकं शरीरं शतवार्षिकं लौकिकमित्येवमादयो विषयाः प्रोक्ताः सन्ति।

पदार्थान्वयभाषाः - (यः-यज्ञः) यः सृष्टियज्ञः पुरुषयज्ञो वा (तन्तुभिः-विश्वतः-ततः) सृष्टितानकैः परमाणुभिर्नाडितन्तुभिर्वा सर्वत आततः (देवकर्मभिः-एकशतम्-आयतः) परमात्मदेवस्य रचनादिकर्मभिरेकशतं शतायुष्को ब्राह्मयज्ञो मोक्षावधिको मानवजीवनापेक्षकः शरीरयज्ञो वा ‘अत्र’ एक शब्दो न शतादधिकार्थकः, शतशब्दस्य विशेषणभूतत्वात् स सामान्यार्थको यथा “एकशताय-असङ्ख्याताय दीर्घीभूतः” [यजु० २२।३४ दयानन्दः] (इमे पितरः-वयन्ति) एते-ऋतवः “ऋतवः पितरः” [श० २।४।२।२४] प्राणा वा “प्राणो वै पिता” [ऐ० २।३८] तानयन्ति निर्मायन्ति (ये-आययुः) ये सर्वत्र प्राप्नुवन्ति (प्र वय-अप वय-इति तते आसते) ‘प्रतानय-अपतानय’ इति परस्परं प्रेरयन्तः सन्तः ते ब्राह्मशरीरयज्ञे पुरुषयज्ञे विराजन्ते ॥१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - The yajnic cosmos, the web of existence, which is extended and expands all round by vibrations, radiations, currents, flames, streams, fibres and filaments spun out and woven by a hundred plus one divine actions (by eight Vasus, twelve Adityas, eleven Rudras, eleven Vishvedevas, fortynine Maruts and ten Vishvasrj creative processes) all this web of yajna, these divinities universally prevailing weave up and down all round, and all these divinities, actions and processes abide therein, in the yajna itself.