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अ॒हं सु॑वे पि॒तर॑मस्य मू॒र्धन्मम॒ योनि॑र॒प्स्व१॒॑न्तः स॑मु॒द्रे । ततो॒ वि ति॑ष्ठे॒ भुव॒नानु॒ विश्वो॒तामूं द्यां व॒र्ष्मणोप॑ स्पृशामि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ahaṁ suve pitaram asya mūrdhan mama yonir apsv antaḥ samudre | tato vi tiṣṭhe bhuvanānu viśvotāmūṁ dyāṁ varṣmaṇopa spṛśāmi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒हम् । सु॒वे॒ । पि॒तर॑म् । अ॒स्य॒ । मू॒र्धन् । मम॑ । योनिः॑ । अ॒प्ऽसु । अ॒न्तरिति॑ । स॒मु॒द्रे । ततः॑ । वि । ति॒ष्ठे॒ । भुव॑ना । अनु॑ । विश्वा॑ । उ॒त । अ॒मूम् । द्याम् । व॒र्ष्मणा॑ । उप॑ । स्पृ॒शा॒मि॒ ॥ १०.१२५.७

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:125» मन्त्र:7 | अष्टक:8» अध्याय:7» वर्ग:12» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:10» मन्त्र:7


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) इस जगत् के (मूर्धन्) मूर्धारूप उत्कृष्ट भाग में स्थित (पितरम्) पालक सूर्य को (अहं सुवे) मैं उत्पन्न करती हूँ (मम योनिः) मेरा घर (अप्सु-समुद्रे-अन्तः) व्यापनशील परमाणुओं में तथा अन्तरिक्ष महान् आकाश में (ततः-विश्वा भुवना) तत एव सारे लोकलोकान्तरों को (अनु वि तिष्ठे) व्याप्त होकर रहती हूँ (इत उ द्याम्) इसी कारण द्युलोक के प्रति (वर्ष्मणा) वर्षणधर्म से (उप स्पृशामि) सङ्गत होती हूँ ॥७॥
भावार्थभाषाः - पारमेश्वरी ज्ञानशक्ति जगत् के ऊपर वर्त्तमान पालक सूर्य को उत्पन्न करती है और वह परमाणुओं तथा महान् आकाश के अन्दर व्याप्त है, सब लोक-लोकान्तरों में निविष्ट है, द्युलोक से मेघमण्डल से वर्षा कराती है ॥७॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सूर्य व जलों के निर्माता प्रभु

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अहम्) = मैं (अस्य) = इस जगत् के (मूर्धन्) = मूर्धभूत [मस्तकरूप] आकाश में, द्युलोक में (पितरम्) = इस पालक सूर्य को (सुवे) = उत्पन्न करता हूँ । द्युलोकस्थ सूर्य सारी प्रजाओं का पालक है, यह सबका पिता है। ‘प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्य:' सब प्रजाओं का प्राण यही है । प्रभु लोकरक्षण के लिए इसे द्युलोक में स्थापित करते हैं । [२] (मम योनिः) = मेरा गृह (अप्सु अन्तः) = इन जलों के अन्दर है, (समुद्रे) = समुद्र में है। जलों में व समुद्रों में भी मेरा ही वास है। मेरे कारण ही उनमें रस है। [३] (ततः) = इस प्रकार सूर्य व जलों का निर्माण करके (विश्वा भुवना अनुवितिष्ठे) = सब भुवनों में मैं स्थित हो रहा हूँ। (वर्ष्मणा) = मैं अपने शरीर प्रमाण से (अमूं द्याम्) = उस सुदूरस्थ द्युलोक को (उपस्पृशामि) = छूता हूँ। वस्तुतः यह द्युलोक मेरे विराट् शरीर का मूर्धा ही तो है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु सूर्य को द्युलोक में स्थापित करते हैं, जलों का निर्माण करते हैं । सब लोकों में व्याप्त हैं।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य मूर्धन् पितरम्-अहं सुवे) अस्य जगतो मूर्धस्थाने खलूत्कृष्टभागे स्थितं पालकं सूर्यम् “एष वै पिता य एष सूर्यः-तपति” [श० १४।१।४।१५] अहं जनयामि-उत्पादयामि (मम योनिः-अप्सु समुद्रे-अन्तः) मम गृहम् “योनिः-गृहनाम” [निघ० ३।४] व्यापनशीलेषु परमाणुषु तथाऽन्तरिक्षे महात्याकाशेऽस्ति “समुद्रः अन्तरिक्षनाम” [निघ० १।३] (ततः-विश्वा भुवना-अनु वि तिष्ठे) तत एव सर्वाणि लोकलोकान्तराणि खल्वनुगत्य व्याप्य तिष्ठामि (इत-ऊ द्यां वर्ष्मणा-उप स्पृशामि) अत एव द्युलोकं वर्षणधर्मणा स्पृशामि ॥७॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - I create the parental protector on top of this human nation and this world in the form of the ruler and the sun. My place is in the depth of waters and the sea and in the particles of space. That same way I abide in all worlds of the universe, and I reach that heaven of light and touch the very top of it with my light and grandeur.