पदार्थान्वयभाषाः - [१] (बीभत्सूनाम्) = रेतः कणों को अपने में बाँधने की कामनावाले के (हंसम्) = सब पापों का विध्वंस करनेवाले [हन हिंसा] गतिशील [हन गतौ] प्रभु को (सयुजम्) = साथ रहनेवाला मित्र (आहुः) = कहते हैं। प्रभु उसी के साथी हैं, जो वासना से ऊपर उठकर रेतः कणों को अपने में सुरक्षित रखता है। उस प्रभु को (दिव्यानां अपाम्) = दिव्य रेतः कणों की (सख्ये) = मित्रता में (चरन्तम्) = विचरण करनेवाला कहते हैं। दिव्य रेतःकण वे हैं जो वासना के कारण मलिन होकर विनाशोन्मुख नहीं होते । शरीर में सुरक्षित रहते हुए ये दिव्य गुणों की वृद्धि का कारण बनते हैं। इन दिव्य रेतः कणों के साथ प्रभु का विचरण है। [२] वे प्रभु (अनुष्टुभम्) = प्रतिदिन स्तोतव्य हैं। (अनु चर्चर्यमाणम्) = पीछे निरन्तर गति करनेवाले हैं। जब हम तेज आदि को प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ करते हैं तो प्रभु भी हमारी सहायता करते हैं [अनु चर्] । हम पुरुषार्थ न करें, तो प्रभु ही हमारे लिए सब कुछ नहीं कर देते । इस (इन्द्रम्) = हमारे सब शत्रुओं का विदारण करनेवाले प्रभु को (कवयः) = क्रान्तदर्शी ज्ञानी मनीषा बुद्धि के द्वारा (निचिक्युः) = जानते हैं। 'दृश्यते त्वग्रया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः'।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु रेतः कणों का रक्षण करनेवाले के मित्र हैं। पुरुषार्थी के सहायक हैं। उस प्रभु को क्रान्तदर्शी लोग सूक्ष्म बुद्धि से देखते हैं। सूक्त का भाव यही है कि हम जीवन को यज्ञ बनाएँ । अमृतत्व को प्राप्त करने की कामना करें। रेतः कणों को वासना से मलिन न होने दें। अवश्य हमें प्रभु प्राप्त होंगे, हम सूक्ष्म बुद्धि से उनका दर्शन कर सकेंगे। 'हमें प्रभु प्राप्त होंगे, तो सब देव तो प्राप्त होंगे ही'। इस महान् उद्घोषणा को अगला सूक्त कर रहा है। उस सूक्त का ऋषि व देवता 'वाग् आम्भृणी' = [अम्भृण महन्नाम नि० ३ । ३] है, 'महत्त्वपूर्ण वाणी व उद्घोषणा'। उसमें कहते हैं-