द्युलोक में सूर्य का स्थापन
पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र के अनुसार उपासना के होने पर (कविः) = क्रान्तदर्शी प्रभु (कवित्वा) = अपनी सर्वज्ञता से (दिवि) = उपासक के मस्तिष्करूप द्युलोक में (रूपम्) = सब पदार्थों के निरूपण को, अर्थात् सब पदार्थों के ज्ञान को (आसजत्) = आसक्त करता है, अर्थात् इस उपासक के मस्तिष्क में ज्ञान के सूर्य को उदित करते हैं । [२] इसी उद्देश्य से (वरुणः) = पाप का निवारण करनेवाले प्रभु (अप्रभूती) = [अल्पेनैव यत्नेन सा० ] अनायास ही वासनारूप वृत्र से अवरुद्ध (अपः) = रेतः कणों को (निः असृजत्) = वासना के बन्धन से मुक्त करते हैं। प्रभु के स्मरण से ही वासना का विनाश होता है और रेतः कण शरीर में सुरक्षित रहते हैं । ये सुरक्षित रेतःकण ज्ञानाग्नि का ईंधन बनते हैं । [३] ये (सिन्धवः) = [स्यन्दन्ते] बहने के स्वभाववाले रेतःकण, (जनयः न) = घर में पत्नियों के समान, (क्षेमं कृण्वानाः) = इस शरीर में क्षेम को करते हुए (शुचयः) = जीवन को पवित्र बनानेवाले होते हैं और (ताः) = वे रेतःकण (अस्य वर्णं भरिभ्रति) = इसके अन्दर तेजस्विता को धारण करते हैं। इसके अन्दर वर्ण को, शकल को, रूप को, तेजस्विता को धारण करते हैं। बीमार व्यक्ति स्वस्थ होता है तो कहते हैं कि अब तो जरा इसकी शकल निकल आयी। एवं 'वर्ण' स्वास्थ्य का प्रतीक है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु उपासक के मस्तिष्क में ज्ञान सूर्य का उदय करते हैं । रेतः कणों को वासनाओं का शिकार नहीं होने देते । सुरक्षित रेतःकण कल्याण करते हैं और हमें तेजस्वी बनाते हैं ।