पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र के अनुसार जीवन को बनानेवाला बहुत कुछ प्रभु जैसा बनता है। प्रभु समुद्र हैं, तो यह उस समुद्र का जलकण होता है । (द्रप्सः) = प्रभु रूप समुद्र का जलकण बना हुआ (यत्) = जब (समुद्रं अभि) = [स- मुद्] उस आनन्द के सागर प्रभु की ओर (जिगाति) = जाता है, तो गृध्रस्य (चक्षसा) = गीध की दृष्टि से, अति तीव्र दृष्टि से (विधर्मन्) = उस विशेषरूप से धारण करनेवाले प्रभु में (पश्यन्) = अपने को देखता है। अपने चारों ओर यह उस प्रभु का अनुभव करता है । [२] (भानुः) = ज्ञान से दीप्त हुआ हुआ यह (शुक्रेण शोचिषा) = दीप्त शुचिता से पवित्रता से (चकान:) = चमकता हुआ (तृतीये रजसि) = तमोगुण व रजोगुण से ऊपर उठकर तृतीय सत्त्वगुण में अवस्थित हुआ-हुआ अथवा प्रकृति व जीव से ऊपर उठकर परमात्मा में स्थित हुआ हुआ (प्रियाणि चक्रे) = सदा प्रभु के प्रिय कर्मों को ही करता है । प्रभु को धारणात्मक कर्म प्रिय हैं । यह भी धारणात्मक कर्मों को करनेवाला होता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - दीप्त व पवित्र जीवनवाले बनते हुए, सदा सत्त्वगुण में अवस्थित होकर प्रभु के प्रिय कर्मों को ही करनेवाले हों । सूक्त का भाव यही है कि वेन मेधावी पुरुष वही है जो प्रभु की ओर चलता है, प्रकृति में फँस नहीं जाता। प्रकृति में न फँसने के कारण ही यह अग्नि-आगे बढ़नेवाला बनता है। इस उन्नतिपथ में आनेवाले विघ्नों का निवारण करनेवाला 'वरुण' बनता है। उन्नत होकर भी 'सोम' विनीत बना रहता है। ' अग्नि वरुण सोम' का पुकारनेवाला [निहव] 'अग्निवरुणसोमानां निहव: ' ही अगले सूक्त का ऋषि है। प्रार्थना है कि-