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देवता: वेनः ऋषि: वेनः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

द्र॒प्सः स॑मु॒द्रम॒भि यज्जिगा॑ति॒ पश्य॒न्गृध्र॑स्य॒ चक्ष॑सा॒ विध॑र्मन् । भा॒नुः शु॒क्रेण॑ शो॒चिषा॑ चका॒नस्तृ॒तीये॑ चक्रे॒ रज॑सि प्रि॒याणि॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

drapsaḥ samudram abhi yaj jigāti paśyan gṛdhrasya cakṣasā vidharman | bhānuḥ śukreṇa śociṣā cakānas tṛtīye cakre rajasi priyāṇi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

द्र॒प्सः । स॒मु॒द्रम् । अ॒भि । यत् । जिगा॑ति । पश्य॑न् । गृध्र॑स्य । चक्ष॑सा । विऽध॑र्मन् । भा॒नुः । शु॒क्रेण॑ । शो॒चिषा॑ । च॒का॒नः । तृ॒तीये॑ । च॒क्रे॒ । रज॑सि । प्रि॒याणि॑ ॥ १०.१२३.८

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:123» मन्त्र:8 | अष्टक:8» अध्याय:7» वर्ग:8» मन्त्र:3 | मण्डल:10» अनुवाक:10» मन्त्र:8


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (द्रप्सः) हर्षकारी परमात्मा (समुद्रम्) हृदय आकाश को (यत्) जब (जिगाति) प्राप्त होता है (विधर्मन्) विशेषतः धारण-ध्यान में (गृध्रस्य) आकाङ्क्षी की दर्शनशक्ति से (पश्यन्) उपासक को देखता हुआ (भानुः शुक्रेण शोचिषा चकानः) ज्ञानप्रकाशक परमात्मा शुभ्र ज्योति से स्तुतिकर्मा को चाहता हुआ (तृतीये रजसि) तीसरे लोक मोक्षधाम में (प्रियाणि चक्रे) प्रिय सुख करता है-देता है ॥८॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा उपासक के हृदय में प्राप्त होता है। जब वो उसे विशेष ध्यान में संलग्न देखता, अपनी ज्ञानप्रज्योति से मोक्ष में प्रिय सुख देता है ॥८॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

द्रप्सः समुद्रम्

पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र के अनुसार जीवन को बनानेवाला बहुत कुछ प्रभु जैसा बनता है। प्रभु समुद्र हैं, तो यह उस समुद्र का जलकण होता है । (द्रप्सः) = प्रभु रूप समुद्र का जलकण बना हुआ (यत्) = जब (समुद्रं अभि) = [स- मुद्] उस आनन्द के सागर प्रभु की ओर (जिगाति) = जाता है, तो गृध्रस्य (चक्षसा) = गीध की दृष्टि से, अति तीव्र दृष्टि से (विधर्मन्) = उस विशेषरूप से धारण करनेवाले प्रभु में (पश्यन्) = अपने को देखता है। अपने चारों ओर यह उस प्रभु का अनुभव करता है । [२] (भानुः) = ज्ञान से दीप्त हुआ हुआ यह (शुक्रेण शोचिषा) = दीप्त शुचिता से पवित्रता से (चकान:) = चमकता हुआ (तृतीये रजसि) = तमोगुण व रजोगुण से ऊपर उठकर तृतीय सत्त्वगुण में अवस्थित हुआ-हुआ अथवा प्रकृति व जीव से ऊपर उठकर परमात्मा में स्थित हुआ हुआ (प्रियाणि चक्रे) = सदा प्रभु के प्रिय कर्मों को ही करता है । प्रभु को धारणात्मक कर्म प्रिय हैं । यह भी धारणात्मक कर्मों को करनेवाला होता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - दीप्त व पवित्र जीवनवाले बनते हुए, सदा सत्त्वगुण में अवस्थित होकर प्रभु के प्रिय कर्मों को ही करनेवाले हों । सूक्त का भाव यही है कि वेन मेधावी पुरुष वही है जो प्रभु की ओर चलता है, प्रकृति में फँस नहीं जाता। प्रकृति में न फँसने के कारण ही यह अग्नि-आगे बढ़नेवाला बनता है। इस उन्नतिपथ में आनेवाले विघ्नों का निवारण करनेवाला 'वरुण' बनता है। उन्नत होकर भी 'सोम' विनीत बना रहता है। ' अग्नि वरुण सोम' का पुकारनेवाला [निहव] 'अग्निवरुणसोमानां निहव: ' ही अगले सूक्त का ऋषि है। प्रार्थना है कि-
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (द्रप्सः) हर्षकरः परमात्मा “द्रप्सः हर्षकर्ता” “दृप हर्षणमोहनयोः” ततः सः प्रत्ययः औणादिकः। “अनुदात्तस्य....” [अ० ६।१।५९] अनेनामागमः [यजु० १।२६ दयानन्दः] (समुद्रम्) हृदयाकाशं (यत्-अभि-जिगाति) यदा प्राप्नोति (विधर्मन्-गृध्रस्य) विशेषेण धारणे ध्याने (गृध्रस्य) आकाङ्क्षिणः (चक्षसा पश्यन्) दर्शनशक्त्या पश्यन् (भानुः-शुक्रेण शोचिषा चकानः) ज्ञानप्रकाशकः शुभ्रेण ज्योतिषा स्तोतारं कामयमानः (तृतीये रजसि) तृतीये धाम्नि मोक्षे (प्रियाणि चक्रे) प्रियाणि सुखानि करोति ॥८॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - When the sun in the third, highest, heaven, shining on the oceans and vapours in the skies with the light of its fervent rays reaches the clouds of vapour, then the blazing heat with pure and powerful energy catalyses the clouds and condenses the vapours into dear valuable drops that shower in rain upon the earth.