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देवता: वेनः ऋषि: वेनः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

स॒मा॒नं पू॒र्वीर॒भि वा॑वशा॒नास्तिष्ठ॑न्व॒त्सस्य॑ मा॒तर॒: सनी॑ळाः । ऋ॒तस्य॒ साना॒वधि॑ चक्रमा॒णा रि॒हन्ति॒ मध्वो॑ अ॒मृत॑स्य॒ वाणी॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

samānam pūrvīr abhi vāvaśānās tiṣṭhan vatsasya mātaraḥ sanīḻāḥ | ṛtasya sānāv adhi cakramāṇā rihanti madhvo amṛtasya vāṇīḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒मा॒नम् । पू॒र्वीः । अ॒भि । व॒व॒शा॒नाः । तिष्ठ॑न् । व॒त्सस्य॑ । मा॒तरः॑ । सऽनी॑ळाः । ऋ॒तस्य॑ । सानौ॑ । अधि॑ । च॒क्र॒मा॒णाः । रि॒हन्ति॑ । मध्वः॑ । अ॒मृत॑स्य । वाणीः॑ ॥ १०.१२३.३

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:123» मन्त्र:3 | अष्टक:8» अध्याय:7» वर्ग:7» मन्त्र:3 | मण्डल:10» अनुवाक:10» मन्त्र:3


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (पूर्वीः) पूर्ववर्ती शाश्वती (वाणीः) वेदवाणियाँ (समानम्) एक परमात्मा को (अभि वावशानाः) वर्णन करती हुई (तिष्ठन्) वर्तमान हैं (वत्सस्य) उस वेदवक्ता परमात्मा के (सानौ) सुख देनेवाले में (चक्रमाणाः) विचरती हुई (अमृतस्य) अमृत (मध्वः) मधुर परमात्मा का (रिहन्ति) स्वाद देती हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - वेदवाणियाँ शाश्वत हैं, नित्य हैं, सब एक परमात्मा का वर्णन करती हैं, उस अमृतस्वरूप मधुर परमात्मा का आनन्द चखाती हैं, अतः परमात्मा के ज्ञानार्थ वेदवाणी का अध्ययन आवश्यक है ॥३॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

मधुरता - अमृतता

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (पूर्वी:) = अपना पालन व पूरण करनेवाली प्रजाएँ (समानम्) = [सम्यग् आनयति] उस प्राणित करनेवाले प्रभु को (अभिवावशाना:) = लक्ष्य करके स्तुति वचनों का उच्चारण करती हुई, (वत्सस्य) = सृष्टि के प्रारम्भ में वेदज्ञान का उच्चारण करनेवाले [ वदति इति] प्रभु का (मातरः) = अपने हृदयों में ज्ञान प्राप्त करनेवाले [= निर्माण करनेवाले] (सनीडा:) = उस समान प्रभु रूप नीड [गृह] में निवास करनेवाले ये स्तोता (ऋतस्य सानौ) = ऋत के शिखर पर (अधि चक्रमाणाः) = गति करते हुए, अर्थात् अपने सब कार्यों को ऋतपूर्वक करते हुए (मध्वः अमृतस्य) = अत्यन्त मधुर अमृत की (वाणी:) = वाणियों को (रिहन्ति) = आस्वादित करते हैं । [२] वेदवाणियाँ - ज्ञान की वाणियाँ जीवन को मधुर बनानेवाली हैं, ये नीरोगता को देनेवाली हैं। इनमें उपदिष्ट मार्ग पर आक्रमण करने से जीवन मधुर व नीरोग बनता है। जो मेधावी पुरुष होते हैं वे [क] प्रभु का स्तवन करते हैं, [ख] हृदयों में प्रभु के प्रकाश को देखने के लिए यत्नशील होते हैं, [ग] प्रभु को सब प्राणियों के निवास- स्थान के रूप में देखते हुए परस्पर बन्धुत्व को अनुभव करते हैं, [घ] इनके सब कार्य नियमित गति से होते हैं, [ङ] ये ज्ञान की वाणियों में आनन्द का अनुभव करते हैं । ये वाणियाँ इनके जीवन को मधुर व नीरोग बनाती हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - मेधावी पुरुषों का जीवन प्रभु स्मरण व ज्ञानग्रहण में प्रवृत्त रहता है, वे मधुर व नीरोग जीवनवाले होते हैं।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (पूर्वीः-वाणीः) प्राक्तन्यो वेदवाचः “वाणी वाङ्नाम” [निघ० १।११] (समानम्-अभि वावशानाः तिष्ठन्) समानमेकं परमात्मानं वर्णयन्त्यस्तिष्ठन्ति (वत्सस्य सनीळाः-मातरः) वेदवक्तुः परमात्मनः समानाश्रयाः-मानकर्त्र्योः ज्ञापयन्त्याः (ऋतस्य सानौ) ज्ञानस्य दातरि (चक्रमाणाः) क्रामयन्त्यः (अमृतस्य मध्वः-रिहन्ति) तममृतस्वरूपं मधुरं परमात्मानम् “द्वितीयार्थे षष्ठी” आस्वादयन्ति अन्तर्गतो णिजर्थः ॥३॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Equal and abundant, shining and thundering currents of natural energy, mother generators of clouds of rain, abiding together with vapours and sun rays in the skies, also active on top of nature’s dynamics, inspire the honey sweets of sage’s immortal songs of divine celebration.