पदार्थान्वयभाषाः - [१] (पूर्वी:) = अपना पालन व पूरण करनेवाली प्रजाएँ (समानम्) = [सम्यग् आनयति] उस प्राणित करनेवाले प्रभु को (अभिवावशाना:) = लक्ष्य करके स्तुति वचनों का उच्चारण करती हुई, (वत्सस्य) = सृष्टि के प्रारम्भ में वेदज्ञान का उच्चारण करनेवाले [ वदति इति] प्रभु का (मातरः) = अपने हृदयों में ज्ञान प्राप्त करनेवाले [= निर्माण करनेवाले] (सनीडा:) = उस समान प्रभु रूप नीड [गृह] में निवास करनेवाले ये स्तोता (ऋतस्य सानौ) = ऋत के शिखर पर (अधि चक्रमाणाः) = गति करते हुए, अर्थात् अपने सब कार्यों को ऋतपूर्वक करते हुए (मध्वः अमृतस्य) = अत्यन्त मधुर अमृत की (वाणी:) = वाणियों को (रिहन्ति) = आस्वादित करते हैं । [२] वेदवाणियाँ - ज्ञान की वाणियाँ जीवन को मधुर बनानेवाली हैं, ये नीरोगता को देनेवाली हैं। इनमें उपदिष्ट मार्ग पर आक्रमण करने से जीवन मधुर व नीरोग बनता है। जो मेधावी पुरुष होते हैं वे [क] प्रभु का स्तवन करते हैं, [ख] हृदयों में प्रभु के प्रकाश को देखने के लिए यत्नशील होते हैं, [ग] प्रभु को सब प्राणियों के निवास- स्थान के रूप में देखते हुए परस्पर बन्धुत्व को अनुभव करते हैं, [घ] इनके सब कार्य नियमित गति से होते हैं, [ङ] ये ज्ञान की वाणियों में आनन्द का अनुभव करते हैं । ये वाणियाँ इनके जीवन को मधुर व नीरोग बनाती हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - मेधावी पुरुषों का जीवन प्रभु स्मरण व ज्ञानग्रहण में प्रवृत्त रहता है, वे मधुर व नीरोग जीवनवाले होते हैं।