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य॒ज्ञस्य॑ के॒तुं प्र॑थ॒मं पु॒रोहि॑तं ह॒विष्म॑न्त ईळते स॒प्त वा॒जिन॑म् । शृ॒ण्वन्त॑म॒ग्निं घृ॒तपृ॑ष्ठमु॒क्षणं॑ पृ॒णन्तं॑ दे॒वं पृ॑ण॒ते सु॒वीर्य॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yajñasya ketum prathamam purohitaṁ haviṣmanta īḻate sapta vājinam | śṛṇvantam agniṁ ghṛtapṛṣṭham ukṣaṇam pṛṇantaṁ devam pṛṇate suvīryam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

य॒ज्ञस्य॑ । के॒तुम् । प्र॒थ॒मम् । पु॒रःऽहि॑तम् । ह॒विष्म॑न्तः । ई॒ळ॒ते॒ । स॒प्त । वा॒जिन॑म् । शृ॒ण्वन्त॑म् । अ॒ग्निम् । घृ॒तऽपृ॑ष्ठम् । उ॒क्षण॑म् । पृ॒णन्त॑म् । दे॒वम् । पृ॒ण॒ते । सु॒ऽवीर्य॑म् ॥ १०.१२२.४

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:122» मन्त्र:4 | अष्टक:8» अध्याय:7» वर्ग:5» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:10» मन्त्र:4


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यज्ञस्य) अध्यात्मयज्ञ के (केतुम्) प्रज्ञापक, प्रसाधक, प्रेरक (प्रथमं पुरोहितम्) प्रमुख पुरोहित (वाजिनम्) अमृतान्नवाले (हविष्मन्तम्) आत्मसमर्पितवाले (शृण्वन्तम्) प्रार्थना को सुननेवाले स्वीकार करनेवाले (घृतपृष्ठम्) तेजपुञ्ज (उक्षणम्) सुखवर्षक (सुवीर्यम्) शोभन बलवाले (पृणते पृणन्तम्) स्तुतियों द्वारा तृप्त करनेवाले के लिये तृप्त करनेवाले परमात्मा को (सप्त) मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार, श्रोत्र, नेत्र, वाणी ये सात (ईळते) स्तुति करते हैं ॥४॥
भावार्थभाषाः - अध्यात्मयज्ञ के प्रेरक जगत् के प्रथम से धारक, मोक्ष में अमृतान्न के देनेवाले, प्रार्थना स्वीकार करनेवाले, तेजस्विरूप शोभन बलदायक तृप्तिकारक परमात्मा की मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार, श्रोत्र, नेत्र और वाणी द्वारा स्तुति करनी चाहिये ॥४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सब अंगों द्वारा प्रभु-उपासन

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (सप्त) = सात (हविष्मन्तः) = दानपूर्वक अदन करनेवाले शरीरस्थ सात ऋषि [कर्णा विमौ नासिके चक्षणी मुखम् ] (ईडते) = उस परमात्मा की उपासना करते हैं, जो प्रभु (यज्ञस्य केतुम्) = सब यज्ञों के प्रकाश हैं, यज्ञों का ज्ञान देनेवाले हैं। (प्रथमम्) = [प्रथ विस्तारे] सर्वत्र विस्तृत हैं, सर्वव्यापक हैं। अथवा देवों में सर्वप्रथम, (देवाधिदेव) = परमदेव हैं। (पुरोहितम्) = जो सृष्टि से पहले से ही विद्यमान हैं। अथवा जो हमारे सामने [पुरः] आदर्शरूप से स्थित हैं [हित] । [२] (वाजिनम्) = जो शक्तिशाली हैं । (शृण्वन्तम्) = हमारी प्रार्थना को सुननेवाले हैं। (अग्निम्) = अग्रेणी हैं। (घृतपृष्ठम्) = दीप्त पृष्ठवाले हैं, ज्ञानदीप्ति से चमक रहे हैं। सम्पूर्ण ज्ञान का आधार हैं। (उक्षणम्) = हमारे पर सुखों का सेचन करनेवाले हैं या हमें शक्ति से सींचनेवाले हैं। (देवम्) = सब कुछ देनेवाले हैं और (पृणते) = देनेवाले के लिए (सुवीर्यम्) = उत्कृष्ट शक्ति को (पृणन्तम्) = देते हुए को ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- मेरे कान, नाक, मुख आदि सब अंग प्रभु का मन्त्र वर्णित प्रकार से उपासन करें।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यज्ञस्य केतुम्) अध्यात्मयज्ञस्य प्रज्ञापकं प्रसाधयितारं (प्रथमं पुरोहितम्) प्रमुखं पुरोधारयितारम् (वाजिनम्) अमृतान्नभोगवन्तम् “अमृतान्नं वै वाजः” [जै० २।१९३] (हविष्मन्तः) आत्मसमर्पणवन्तं (शृण्वन्तम्) प्रार्थनां स्वीकुर्वन्तं (घृतपृष्ठम्) तेजःस्पर्शिनं (उक्षणम्) सुखवर्षकं (सुवीर्यम्) शोभनबलवन्तं (पृणते पृणन्तम्) स्तुतिभिस्तर्पयते तर्पयन्तं (सप्त-ईळते) मनोबुद्धिचित्ताहङ्कारास्तथा नेत्र श्रोत्रे वाक् चेति सप्त स्तुवन्ति ॥४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Seven priests with seven pranas and seven faculties of sense and mind offer havi and adore Agni, first and original performer of creation yajna who bears on the banner of creative yajna to its victorious completion, and they go on serving the seven-rayed light of life, listening, fed on and rising by ghrta, generous lord refulgent who blesses the dedicated celebrant with noble strength and happy progeny.