पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (जुषाणः) = प्रीतिपूर्वक सेवन किये जाते हुए आप (मे वचः) = मेरे स्तुति-वचन की (प्रतिहर्य) = कामना कीजिए। मेरे स्तुति-वचन आपको प्रीणित करनेवाले हों। [२] हे (सुक्रतो) = शोभन प्रज्ञावाले प्रभो ! आप (विश्वानि वयुनानि) = सब प्रज्ञानों को विद्वान् जानते हैं । और सर्वज्ञ होने के कारण ही (घृतनिर्णिक्) = इस ज्ञानदीप्ति के द्वारा शोधन को करनेवाले हैं। आप (ब्रह्मणे) = इस ज्ञान को प्राप्त करनेवाले के लिए (गातुम्) = मार्ग को एरय प्रेरित करिये। आप से ज्ञान को प्राप्त करके यह ज्ञानी मार्ग पर चलनेवाला हो। [३] वस्तुत:, हे अग्ने! (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (तव अनु) = आपके अनुसार ही (व्रतम्) = [नियमः पुण्यकं व्रतम् ] पुण्य कर्मों को (अजनयन्) = उत्पन्न करते हैं । आपके गुण कर्मों के अनुसार अपने गुण कर्मों को बनाते हुए ये आप जैसा बनने का प्रयत्न करते हैं । आप दयालु हैं, ये भी दया को अपनाते हैं। आप न्यायकारी हैं, ये भी न्यायवृत्ति से चलने का प्रयत्न करते हैं । वस्तुतः इसीलिए ये आपका स्तवन करते हैं कि उन गुणों को अपने में भी धारण करने का यत्न करें। वस्तुतः ऐसा करने से ही यह स्तुति 'काव्य' न रहकर 'दृश्य' हो जाती है। यह दृश्य भक्ति ही प्रभु को प्रिय है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम प्रभु का स्तवन करें, प्रभु हमारा मार्गदर्शन करें। प्रभु के गुण-कर्मानुसार हम अपने गुण-कर्म साधने का यत्न करें।