पदार्थान्वयभाषाः - [१] (यः) = जो (पृथिव्याः) = इस प्राणियों के निवास स्थानभूत पृथ्वी का (जनिता) = उत्पादक है, वह (नः) = हमें (मा हिंसीत्) = मत हिंसित करे । (वा) = अथवा वह (सत्यधर्मा) = सत्य का धारण करनेवाला प्रभु (यः) = जो (दिवं जजान) = द्युलोक को उत्पन्न करता है, वह हमें हिंसित न करे। वस्तुतः वह प्रभु पृथ्वीलोक व द्युलोक को उत्पन्न करके प्राणियों की रक्षा की व्यवस्था करता है । पृथिवी हमारी मातृ-स्थानापन्न होती है और द्युलोक हमारा पितृतुल्य होता है । 'द्यौ पिता, पृथिवी माता'। जैसे 'माता-पिता' सन्तानों का रक्षण करते हैं, उसी प्रकार प्रभु इन द्युलोक व पृथ्वीलोक के द्वारा हमारा रक्षण करते हैं । [२] और (यः) = जो प्रभु इन (चन्द्राः) = सब आह्लादों को जन्म देनेवाले (बृहती: आपः) = महान् व्यापक महत्तत्त्व को (जजान) = पैदा करता है । प्रकृति से प्रभु ही इस महत्तत्त्व को पैदा करते हैं । उस (कस्मै) = आनन्दमय देवाय सब कुछ देनेवाले प्रभु के लिए (हविषा) = दानपूर्वक अदन से (विधेम) = हम पूजा करें। प्रकृति का पहला परिणाम 'महत्तत्त्व' है, यही समष्टि बुद्धि भी कहलाता है। इस 'समष्टि बुद्धि' के रूप में यह वस्तुतः 'चन्द्रा: ' सब आह्लादों का कारण है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ– द्युलोके, पृथ्वीलोके व महत्तत्त्व के जन्म देनेवाले प्रभु हमें हिंसित होने से बचाएँ ।