'तेजस्वी द्युलोक' व 'दृढ़ पृथिवी'
पदार्थान्वयभाषाः - [१] (येन) = जिस प्रभु ने (द्यौः उग्रा) = द्युलोक को बड़ा तेजस्वी बनाया है, (च) = और (पृथिवी) = पृथिवी को (दृढ़ा) = दृढ़ किया है। द्युलोक सूर्य व सितारों से देदीप्यमान है, और पृथिवी आकाश से गिरनेवाले ओलों को किस प्रकार अविचल भाव से सहन करती है। (येन) = जिस प्रभु ने (स्वः) = इस देदीप्यमान सूर्य को अथवा स्वर्गलोक को (स्तभितम्) = थामा है, तथा (येन) = जिसने (नाकः) = मोक्षलोक का धारण किया है । [२] (यः) = जो प्रभु (अन्तरिक्षे) = इस अन्तरिक्ष लोक में (रजसः) = जल का (विमानः) = एक विशिष्ट व्यवस्था के द्वारा निर्माण करनेवाले हैं। सूर्य की उष्णता से वाष्पीभूत होकर जल ऊपर उठता है, ये वाष्प ऊपर जाकर ठण्डे प्रदेश में पहुँचने पर फिर से घनीभूत होकर बादल के रूप में होते हैं । इस प्रकार अन्तरिक्ष लोक में जल का निर्माण होता है। इस (कस्मै) = आनन्दमय (देवाय) = सब कुछ देनेवाले प्रभु के लिए (हविषा) = दानपूर्वक अदन से (विधेम) = हम पूजा करें।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- द्युलोक, पृथ्वीलोक, स्वर्ग व मोक्ष सभी का धारण करनेवाले प्रभु हैं। ये प्रभु ही एक विशिष्ट व्यवस्था द्वारा अन्तरिक्ष में जलों का निर्माण करते हैं ।