पदार्थान्वयभाषाः - [१] मनुष्य (देवस्य) = उस दिव्यगुणों के पुञ्ज प्रभु का (स्वावृक्) = उत्तमता से आवर्जन करनेवाला होता है । एक मनुष्य का झुकाव प्रभु की ओर होता है (यद्) = जब (ई) = निश्चय से (गोः अमृतम्) = गौ का अमृत तुल्य दुग्ध तथा (अतः गोः जातासः) = इस पृथ्वी से [गौ = भूमि] उत्पन्न वानस्पतिक भोजन (उर्वी) = इन द्यावापृथिवी को, मस्तिष्क व शरीर को (धारयन्त) = धारण करते हैं। अर्थात् जब एक मनुष्य गोदुग्ध व वानस्पतिक भोजनों का सेवन करता है तो उसका शरीर व मस्तिष्क दोनों बड़े उत्तम बनते हैं । और इस मनुष्य का झुकाव प्राकृतिक भोगों की ओर न होकर प्रभु की ओर होता है। [२] जब मनुष्य का झुकाव प्रभु की ओर होता है तो (तत्) = तब (विश्वेदेवाः) = सब दिव्यगुण (ते यजुः) = तेरे सम्पर्क को [यज-संगतिकरण] (अनुगुः) = अनुकूलता से प्राप्त होते हैं । [३] प्रभु की ओर झुकाव होने पर दिव्यगुण प्राप्त होते ही हैं, (यत्) = क्योंकि (एनी) = श्वेत-शुद्ध-शुक्त वेदवाणी (दिव्यम्) = दिव्य व अलौकिक (घृतम्) = ज्ञान - दीप्ति को तथा (वा) = [वार्] रोगों के निवारण को (दुहे) = पूरित करती है [वारणं वाः] । वेदवाणी ज्ञान को तो प्राप्त कराती ही है, यह वाणी मनुष्य की वृत्ति को सुन्दर बनाकर, उसे वासनाओं से ऊपर उठाकर, नीरोग भी बनाती है । यह वरदा वेदमाता 'आयुः प्राणं' आयुष्य व प्राण को देनेवाली तो है ही ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - जब गोदुग्ध व वानस्पतिक भोजन हमारे शरीर व मस्तिष्क को धारण करते हैं तो हमारा झुकाव प्रभु की ओर होता है, हमें दिव्यगुण प्राप्त होते हैं और ज्ञान की वाणी हमारे में ज्ञान - दीप्ति व नीरोगता को प्राप्त कराती है।