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स्वावृ॑ग्दे॒वस्या॒मृतं॒ यदी॒ गोरतो॑ जा॒तासो॑ धारयन्त उ॒र्वी । विश्वे॑ दे॒वा अनु॒ तत्ते॒ यजु॑र्गुर्दु॒हे यदेनी॑ दि॒व्यं घृ॒तं वाः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

svāvṛg devasyāmṛtaṁ yadī gor ato jātāso dhārayanta urvī | viśve devā anu tat te yajur gur duhe yad enī divyaṁ ghṛtaṁ vāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स्वावृ॑क् । दे॒वस्य॑ । अ॒मृत॑म् । यदि॑ । गोः । अतः॑ । जा॒तासः॑ । धा॒र॒य॒न्ते॒ । उ॒र्वी इति॑ । विश्वे॑ । दे॒वाः । अनु॑ । तत् । ते॒ । यजुः॑ । गुः॒ । दु॒हे । यत् । एनी॑ । दि॒व्यम् । घृ॒तम् । वारिति॒ वाः ॥ १०.१२.३

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:12» मन्त्र:3 | अष्टक:7» अध्याय:6» वर्ग:11» मन्त्र:3 | मण्डल:10» अनुवाक:1» मन्त्र:3


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (गोः देवस्य) सर्वत्र व्यापनशील परमात्मदेव का (स्वावृक्) स्वतःप्राप्त (अमृतम्) अनश्वर सुख को (यत्-इ) यतः (उर्वी) द्यावापृथिवीमय जगत् में (विश्वे देवाः-धारयन्ति) परमात्मा में प्रवेश करनेवाले मुमुक्षु जीवन्मुक्त विद्वान् धारण करते हैं-प्राप्त करते हैं (ते तत्-यजुः-अनुगुः) तेरे इस यजनदान को वे अनुरूपगान प्रशंसन करते हैं (यत्-एनी दिव्यं घृतं वाः-दुहे) जैसे कोई नदी दिव्य तेजस्वी जल को दोह रही होती है ॥३॥
भावार्थभाषाः - सर्वत्र व्याप्त परमात्मा के अपने निजी अनश्वर सुख को जीवन्मुक्त धारण करते हैं। उन्हें ऐसा लगता है, जैसे नदी दिव्य जल रिसा रही है। उसे पाकर वे उसका गान स्तवन करते हैं ॥३॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

गोदुग्ध व वनस्पति

पदार्थान्वयभाषाः - [१] मनुष्य (देवस्य) = उस दिव्यगुणों के पुञ्ज प्रभु का (स्वावृक्) = उत्तमता से आवर्जन करनेवाला होता है । एक मनुष्य का झुकाव प्रभु की ओर होता है (यद्) = जब (ई) = निश्चय से (गोः अमृतम्) = गौ का अमृत तुल्य दुग्ध तथा (अतः गोः जातासः) = इस पृथ्वी से [गौ = भूमि] उत्पन्न वानस्पतिक भोजन (उर्वी) = इन द्यावापृथिवी को, मस्तिष्क व शरीर को (धारयन्त) = धारण करते हैं। अर्थात् जब एक मनुष्य गोदुग्ध व वानस्पतिक भोजनों का सेवन करता है तो उसका शरीर व मस्तिष्क दोनों बड़े उत्तम बनते हैं । और इस मनुष्य का झुकाव प्राकृतिक भोगों की ओर न होकर प्रभु की ओर होता है। [२] जब मनुष्य का झुकाव प्रभु की ओर होता है तो (तत्) = तब (विश्वेदेवाः) = सब दिव्यगुण (ते यजुः) = तेरे सम्पर्क को [यज-संगतिकरण] (अनुगुः) = अनुकूलता से प्राप्त होते हैं । [३] प्रभु की ओर झुकाव होने पर दिव्यगुण प्राप्त होते ही हैं, (यत्) = क्योंकि (एनी) = श्वेत-शुद्ध-शुक्त वेदवाणी (दिव्यम्) = दिव्य व अलौकिक (घृतम्) = ज्ञान - दीप्ति को तथा (वा) = [वार्] रोगों के निवारण को (दुहे) = पूरित करती है [वारणं वाः] । वेदवाणी ज्ञान को तो प्राप्त कराती ही है, यह वाणी मनुष्य की वृत्ति को सुन्दर बनाकर, उसे वासनाओं से ऊपर उठाकर, नीरोग भी बनाती है । यह वरदा वेदमाता 'आयुः प्राणं' आयुष्य व प्राण को देनेवाली तो है ही ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - जब गोदुग्ध व वानस्पतिक भोजन हमारे शरीर व मस्तिष्क को धारण करते हैं तो हमारा झुकाव प्रभु की ओर होता है, हमें दिव्यगुण प्राप्त होते हैं और ज्ञान की वाणी हमारे में ज्ञान - दीप्ति व नीरोगता को प्राप्त कराती है।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (गोः-देवस्य) सर्वत्र प्रापणशीलस्य परमात्मदेवस्य (स्वावृक्) निजावर्जितम् ‘स्वपूर्वात् वृजी वर्जने, इत्यस्मादाङ्पूर्वात् क्विप्-औणादिकः सर्वलिङ्गः’ स्वस्मिन् शाश्वतिकं स्थितम् (अमृतम्) अनश्वरसुखम् (यत्-इ) यतोऽस्ति तस्मात् (उर्वी) द्यावापृथिव्यौ-द्यावापृथिव्योर्मध्ये ‘विभक्तिव्यत्ययः’ द्यावापृथिवीमये जगति “उर्वी द्यावापृथिवीनाम” [निघ०३।३०] (विश्वे देवाः-धारयन्ति) परमात्मनि प्रवेशशीला मुमुक्षवो जीवान्मुक्ताः धारयन्ति (ते तत्-यजुः-अनुगुः) हे परमात्मदेव ! ते तव यजुर्यजनं दानमनुगायन्ति प्रशंसन्ति (यत्-एनी दिव्यं घृतं वाः-दुहे) यथा काचित् नदी “एन्यो नद्यः” [निघ०१।१३] दिव्यं तेजोरूपं जलं वहेदिति तथा त्वममृतं प्रवहसि “तेजो वै घृतम्” [मै०१।६।८] ॥३॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - When the celestial nectar of this refulgent power’s own essence radiates, then the energies generated by it support and sustain both earth and heaven, and all divinities of nature and humanity receive and celebrate these gifts of Agni, the divine beauty, radiance and liquid energies which the light divine showers on them.