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अ॒हं तष्टे॑व व॒न्धुरं॒ पर्य॑चामि हृ॒दा म॒तिम् । कु॒वित्सोम॒स्यापा॒मिति॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ahaṁ taṣṭeva vandhuram pary acāmi hṛdā matim | kuvit somasyāpām iti ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒हम् । तष्टा॑ऽइव । व॒न्धुर॑म् । परि॑ । अ॒चा॒मि॒ । हृ॒दा । म॒तिम् । कु॒वित् । सोम॑स्य । अपा॑म् । इति॑ ॥ १०.११९.५

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:119» मन्त्र:5 | अष्टक:8» अध्याय:6» वर्ग:26» मन्त्र:5 | मण्डल:10» अनुवाक:10» मन्त्र:5


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वष्टा-इव) शिल्पी की भाँति (बन्धुरम्) जैसे रथ के स्वामी के लिये वह बैठने के स्थान को सब ओर से ठीक प्रकार निर्माण करता है, ऐसे ही (अहम्) मैं (हृदा) हृदय से (मतिम्) मति को-मानसिक शक्ति को (परि-अचामि) सब ओर से ठीक प्रकार सिद्ध करता हूँ (कुवित् सोमस्य अपाम् इति) मैंने परमात्मा के आनन्दरस को बहुत पिया है ॥५॥
भावार्थभाषाः - शिल्पी जैसे रथस्वामी के बैठने के स्थान को परिष्कृत करता है, ऐसे ही उपासक को अपनी मानसिक शक्ति को हृदय से श्रद्धा से-परिष्कृत करना चाहिये ॥५॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

श्रद्धा - बुद्धि

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (कुवित्) = खूब ही सोमस्य सोम का (अपाम्) = मैंने पान किया है (इति) = इस कारण (अहम्) = मैं (हृदा) = हृदय से श्रद्धा से (मतिम्) = बुद्धि को (पर्यचामि) = [परि अञ्च] प्राप्त करता हूँ । उसी प्रकार (इव) = जैसे कि (तष्टा) = शिल्पी (वन्धुरम्) = [diadem] मुकुट को बनाता है । [२] सोम के रक्षण से मनुष्य श्रद्धा के साथ बुद्धि का अपने में विकास करनेवाला बनता है। वीर्य को अपव्ययित न होने देकर शरीर में ही व्याप्त करने से श्रद्धा और बुद्धि दोनों का विकास होता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोम के रक्षण से शरीर में हृदय के साथ मति का विकास होता है। मनुष्य श्रद्धा और विद्या दोनों को प्राप्त करनेवाला बनता है।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (तष्टा-इव बन्धुरम्-अहं हृदा मतिं-परि-अचामि) तष्टा-तक्षकः शिल्पी वा यथा रथिनो निषदनस्थानं परितः साधयति तद्वदहं हृदयेन मतिं-मानसिकशक्तिं परितः साधयामि (कुवित्…) पूर्ववत् ॥५॥  
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Just as the maker makes and controls the well- structured chariot so do I control my mind and intellect at heart by soul, since I have drunk of the soma of the divine spirit.