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इति॒ वा इति॑ मे॒ मनो॒ गामश्वं॑ सनुया॒मिति॑ । कु॒वित्सोम॒स्यापा॒मिति॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

iti vā iti me mano gām aśvaṁ sanuyām iti | kuvit somasyāpām iti ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इति॑ । वै । इति॑ । मे॒ । मनः॑ । गाम् । अश्व॑म् । स॒नु॒या॒म् । इति॑ । कु॒वित् । सोम॑स्य । अपा॑म् । इति॑ ॥ १०.११९.१

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:119» मन्त्र:1 | अष्टक:8» अध्याय:6» वर्ग:26» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:10» मन्त्र:1


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ब्रह्ममुनि

इस सूक्त में परमात्मा के आनन्दरसपान से बहुत सिद्धियों का वर्णन है। मोक्ष को प्राप्त कर पुनः आना पुनरावृत्ति भी कही है।

पदार्थान्वयभाषाः - (इति वै-इति) ऐसा निश्चय ऐसा ही है (मे मनः) मेरा मन है (गाम्) गौ को (अश्वम्) घोड़े को (सनुयाम्) दान कर दूँ (इति) इत्यादि और भी जो बहुमूल्य वस्तु हैं, उनको दे दूँ दान कर दूँ जिससे-क्योंकि (सोमस्य) परमात्मा के आनन्दरस को (कुवित्) बहुत (अपाम्) पी लिया-पी रहा हूँ, इसलिये भौतिक धनसङ्ग्रह नहीं करना चाहिये ॥१॥
भावार्थभाषाः - उपासक मनुष्य जब परमात्मा के आनन्दरस को पी लेता है या पीता है, ग्रहण करता है, तो सांसारिक वस्तुओं में उसे राग नहीं रहता है, न रहना चाहिये, वह अपनी बहुमूल्य वस्तु को भी दूसरे को दान दे दिया करता है ॥१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सशक्त इन्द्रियाँ

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (कुवित्) = खूब ही (सोमस्य) = सोम का (अपाम्) = मैंने पान व रक्षण किया है (इति) = इस कारण (इति वा) = निश्चय से (इति मे मनः) = इस प्रकार मेरा मन है कि (गाम्) = ज्ञानेन्द्रियों को (अश्वम्) = कर्मेन्द्रियों को सनुयां इति प्राप्त करूँ । [२] सोम के रक्षण से ज्ञानेन्द्रियाँ भी उत्तम बनती हैं और कर्मेन्द्रियाँ भी सशक्त होती हैं। ज्ञानेन्द्रियाँ अर्थों का ज्ञान प्राप्त कराने के कारण 'गो' शब्द से कही गई हैं [गमयन्ति अर्थान्], तथा कर्मेन्द्रियाँ कर्मों में व्याप्त होने से 'अश्व' हैं। सोमरक्षण से सब इन्द्रियों की शक्ति ठीक बनी रहती है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- मैं सोम का शरीर में रक्षण करूँ और परिणामत: मेरी ज्ञानेन्द्रियाँ व कर्मेन्द्रियाँ सशक्त हों ।
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ब्रह्ममुनि

अत्र सूक्ते परमात्मन आनन्दरसपानेन बह्व्यः सिद्धयः प्रदर्श्यन्ते मोक्षं प्राप्य च पुनरावर्तनं चाप्यत्र ज्ञाप्यते, इति विषयाः सन्ति।

पदार्थान्वयभाषाः - (इति वै-इति) इति-एवं वै खल्वेवं (मे मनः) मम मनोऽस्ति (गाम्-अश्वं-सनुयाम-इति) गाम्, अथाश्वं यश्च मम पार्श्वे तं सर्वं बहुमूल्यं पदार्थं दद्याम् “षणु दाने” [तनादि०] कुत एवमाकाङ्क्षा जाता, यतः (सोमस्य कुवित्-अपाम्-इति) सोमस्य परमात्मन आनन्दरसं बहु पीतवान् “कुवित्-बहुनाम” [निघ० ३।१] इति हेतोर्नैतेषां सङ्ग्रहोऽपेक्ष्यते ॥१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - This and this alone is what I am at heart: Let me win over the cow and the horse, wealth of the earth and all possible progress onward, and wholly control my senses and dynamics of the mind, for I have drunk the soma of the divine spirit.