वासना - विजय व प्रभु सामीप्य
पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (सुपित्र्य) = उत्तम माता-पितावाले जीव ! 'प्रभु' ही तेरे पिता हैं, 'वेद' तेरी माता है । इन माता-पिता से तू उत्तम माता-पितावाला है। सो तू उस प्रभु की प्राप्ति के लिए (तृषु) = शीघ्र ही (अनुच्यवानः) = क्रमशः वासनाओं को अपने से पृथक् करनेवाला बन । जितना-जितना तू वासनाओं से ऊपर उठेगा उतना उतना प्रभु को प्राप्त करनेवाला होगा। उस प्रभु की प्राप्ति के लिए तू वासनाओं को क्षीण कर, जो (वाजिन्तमाय) = सर्वाधिक शक्ति सम्पन्न हैं, (सह्यसे) = तेरे शत्रुओं का मर्षण करनेवाले हैं। जातवेदसे-जो सर्वज्ञ हैं व सर्वत्र विद्यमान हैं । [२] उस प्रभु के प्राप्ति के लिए तू काम-क्रोध-लोभ को अपने से (च्युत) = करनेवाला हो, (यः) = जो (अनुद्रे चित्) = उदकरहित स्थल में भी, रेगिस्तान में भी (धृषता) = अपने धर्षक बल से (वरम्) = श्रेष्ठ पदार्थों को (सते) = सत् [= विद्यमान ] करनेवाले हैं । (महिन्तमाय) = अत्यन्त महान् व पूज्य हैं और (इत्) = निश्चय से (धन्वनेद्) = 'प्रणव' रूप धनुष के द्वारा अविष्यते हमारे रक्षण की कामनावाले हैं। प्रभु हमें 'प्रणव' [ओ३म् ] रूप धनुष प्राप्त कराते हैं, इस धनुष के द्वारा हम सब वासनाओं को विद्ध करके विनष्ट करते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- जितना-जितना हम वासनाओं को जीत पाते हैं उतना उतना प्रभु के समीप होते जाते हैं।