पदार्थान्वयभाषाः - [१] 'एक मनुष्य प्रभु का मित्र है' यह बात उसके व्यवहारों से प्रकट होती है। यहाँ उन व्यवहारों का संकेत 'भूरि दक्षेभिः वचनेभिः' 'ऋक्वभिः' 'सख्येभिः ' इन शब्दों से हुआ है। (भूरि) = खूब (दक्षेभिः) = उन्नति के साधक (वचनेभिः) = वचनों से (सख्यानि) = प्रभु के साथ अपनी मित्रताओं का (प्रवोचत) = प्रतिपादन करो। प्रभु का मित्र सदा ऐसे शब्दों को बोलता है जो कि औरों की उन्नति में साधक होते हैं। उत्साहवर्धक शब्दों का ही यह प्रयोग करता है। (ऋक्वभिः) = [ऋच् स्तुतौ] स्तुत्यात्मक शब्दों से यह कभी निन्दा के शब्दों का प्रयोग नहीं करता । (सख्येभिः) = मित्रताओं से यह सब के साथ स्नेह व मित्रता से चलता है। कभी द्वेष की वृत्ति को अपने में नहीं आने देता । [२] (इन्द्रः) = यह प्रभु का मित्र जितेन्द्रिय पुरुष (धुनिं च) = शरीर को कम्पित करनेवाले क्रोध रूप शत्रु को (च) = तथा (चुमुरिम्) = शरीर की शक्तियों को पी जानेवाले कामरूप शत्रु को (दम्भयन्) = हिंसित करता हुआ दभीतये अन्य सब शत्रुओं के भी हिंसन के लिए (श्रद्धामनस्या) = श्रद्धायुक्त मन की इच्छा से (शृणुते) = ज्ञान की वाणियों का श्रवण करता है। ज्ञान की वाणियों का श्रवण करता हुआ वह अशुभ भावों से सदा दूर रहता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु का मित्र [क] सदा उत्साहवर्धक शब्द बोलता है, [ख] निन्दात्मक शब्द नहीं बोलता, [ग] सबके साथ मित्रता से चलता है, [घ] काम-क्रोध को जीतता है, [ङ] श्रद्धायुक्त मन संकल्प से ज्ञान की वाणियों का श्रवण करता है ।