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भूरि॒ दक्षे॑भिर्वच॒नेभि॒ॠक्व॑भिः स॒ख्येभि॑: स॒ख्यानि॒ प्र वो॑चत । इन्द्रो॒ धुनिं॑ च॒ चुमु॑रिं च द॒म्भय॑ञ्छ्रद्धामन॒स्या शृ॑णुते द॒भीत॑ये ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

bhūri dakṣebhir vacanebhir ṛkvabhiḥ sakhyebhiḥ sakhyāni pra vocata | indro dhuniṁ ca cumuriṁ ca dambhayañ chraddhāmanasyā śṛṇute dabhītaye ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

भूरि॑ । दक्षे॑भिः । व॒च॒नेभिः॑ । ऋक्व॑ऽभिः । स॒ख्येभिः॑ । स॒ख्यानि॑ । प्र । वो॒च॒त॒ । इन्द्रः॑ । धुनि॑म् । च॒ । चुमु॑रिम् । च॒ । द॒म्भय॑न् । श्र॒द्धा॒ऽम॒न॒स्या । शृ॒णु॒ते॒ । द॒भीत॑ये ॥ १०.११३.९

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:113» मन्त्र:9 | अष्टक:8» अध्याय:6» वर्ग:15» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:10» मन्त्र:9


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (दक्षेभिः) बलवालों (ऋक्वभिः) ऋचावालों-मन्त्रवालों (सख्येभिः) मित्रभाववालों (वचनेभिः) वचनों द्वारा (सख्यानि) मित्रव्यवहारों को (भूरि प्र वोचत) बहु प्रकार से बोलो प्रदर्शित करो (इन्द्रः) जो राजा (धुनिं च) कम्पानेवाले दस्यु को (चुमुरिं च) छीनकर खानेवाले चोर को (दम्भयन्) नष्ट करने के हेतु (दभीतये) दुःखविनाश के लिये (श्रद्धामनस्या) श्रद्धायुक्त मनोभावना से (शृणुते) दुःखहर्त्ता सुनता है, वह राजा होता है ॥९॥
भावार्थभाषाः - प्रजाजनों को चाहिये कि राजा से अपने दुःख दूर करने के लिये बलवान् विचारयुक्त मित्रभावपूर्ण वचनों द्वारा प्रार्थनाएँ करें, प्रजा के दुःख के कारणरूप जो कम्पानेवाला शत्रु दस्यु और चुराकर खानेवाले चोर को नष्ट करने के लिये मनोयोग से उनकी सुनता है और उनके दुःख दूर करता है, वह राजा होने योग्य है ॥९॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

प्रभु के मित्र के लक्षण

पदार्थान्वयभाषाः - [१] 'एक मनुष्य प्रभु का मित्र है' यह बात उसके व्यवहारों से प्रकट होती है। यहाँ उन व्यवहारों का संकेत 'भूरि दक्षेभिः वचनेभिः' 'ऋक्वभिः' 'सख्येभिः ' इन शब्दों से हुआ है। (भूरि) = खूब (दक्षेभिः) = उन्नति के साधक (वचनेभिः) = वचनों से (सख्यानि) = प्रभु के साथ अपनी मित्रताओं का (प्रवोचत) = प्रतिपादन करो। प्रभु का मित्र सदा ऐसे शब्दों को बोलता है जो कि औरों की उन्नति में साधक होते हैं। उत्साहवर्धक शब्दों का ही यह प्रयोग करता है। (ऋक्वभिः) = [ऋच् स्तुतौ] स्तुत्यात्मक शब्दों से यह कभी निन्दा के शब्दों का प्रयोग नहीं करता । (सख्येभिः) = मित्रताओं से यह सब के साथ स्नेह व मित्रता से चलता है। कभी द्वेष की वृत्ति को अपने में नहीं आने देता । [२] (इन्द्रः) = यह प्रभु का मित्र जितेन्द्रिय पुरुष (धुनिं च) = शरीर को कम्पित करनेवाले क्रोध रूप शत्रु को (च) = तथा (चुमुरिम्) = शरीर की शक्तियों को पी जानेवाले कामरूप शत्रु को (दम्भयन्) = हिंसित करता हुआ दभीतये अन्य सब शत्रुओं के भी हिंसन के लिए (श्रद्धामनस्या) = श्रद्धायुक्त मन की इच्छा से (शृणुते) = ज्ञान की वाणियों का श्रवण करता है। ज्ञान की वाणियों का श्रवण करता हुआ वह अशुभ भावों से सदा दूर रहता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु का मित्र [क] सदा उत्साहवर्धक शब्द बोलता है, [ख] निन्दात्मक शब्द नहीं बोलता, [ग] सबके साथ मित्रता से चलता है, [घ] काम-क्रोध को जीतता है, [ङ] श्रद्धायुक्त मन संकल्प से ज्ञान की वाणियों का श्रवण करता है ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (दक्षेभिः) बलवद्भिः “दक्षो बलनाम” [निघ० २।९] अकारो मत्वर्थीयश्छान्दसः (ऋक्वभिः) ऋग्वद्भिः-मन्त्रयुक्तैः “ऋक्शब्दात् “छन्दसी-वनिपौ, इति मतुबर्थे वनिप् प्रत्ययश्छान्दसः” (सख्येभिः) सखिभावपूर्णैः (वचनेभिः) वचनैः (सख्यानि भूरि प्र वोचत) सखित्वानि बहुप्रकारेण प्रवदत-प्रदर्शयत (इन्द्रः) यो राजा (धुनिं च) कम्पयितारं दस्युं च “धुनिं श्रेष्ठानां कम्पयितारम्” [ऋ० ७।१९।४ दयानन्दः] (चुमुरिं च) अपहृत्य भक्षकं चोरम् “चुमुरि चोरम्” [ऋ० ७।१९।४ दयानन्दः] (दम्भयन्) नाशनहेतोः (दभीतये श्रद्धामनस्या शृणुते) दुःखविनाशाय “दुःखहिंसनाय” [ऋ० ६।२६।६ दयानन्दः] श्रद्धायुक्तमनोभावनया स दुःखहर्त्ता शृणुते ॥९॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O celebrants of Indra dedicated to yajnic union and cooperation, celebrate your kinship with Indra enthusiastically and proclaim with words of power, praise, love and friendship: Indra listens with faith, understanding and sympathy at heart to invocation and prayer for relief of the oppressed and subdues the vociferous ogres and terrorising destroyers of life and values of good living. (Such a person is worthy of being the ruler, Indra of the human nation.)