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ज॒ज्ञा॒न ए॒व व्य॑बाधत॒ स्पृध॒: प्राप॑श्यद्वी॒रो अ॒भि पौंस्यं॒ रण॑म् । अवृ॑श्च॒दद्रि॒मव॑ स॒स्यद॑: सृज॒दस्त॑भ्ना॒न्नाकं॑ स्वप॒स्यया॑ पृ॒थुम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

jajñāna eva vy abādhata spṛdhaḥ prāpaśyad vīro abhi pauṁsyaṁ raṇam | avṛścad adrim ava sasyadaḥ sṛjad astabhnān nākaṁ svapasyayā pṛthum ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ज॒ज्ञा॒नः । ए॒व । वि । अ॒बा॒ध॒त॒ । स्पृधः॑ । प्र । अ॒प॒श्य॒त् । वी॒रः । अ॒भि । पौंस्य॑म् । रण॑म् । अवृ॑श्चत् । अद्रि॑म् । अव॑ । स॒ऽस्यदः॑ । सृ॒ज॒त् । अस्त॑भ्नात् । नाक॑म् । सु॒ऽअ॒प॒स्यया॑ । पृ॒थुम् ॥ १०.११३.४

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:113» मन्त्र:4 | अष्टक:8» अध्याय:6» वर्ग:14» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:10» मन्त्र:4


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (जज्ञानः-एव) राजा राजसूयज्ञ द्वारा प्रसिद्ध होते ही (स्पृधः) स्पर्धाशील शत्रुओं को (वि अबाधत) विशेषरूप से बाधित करता है-पीड़ित करता है (वीरः) शूरवीर होता हुआ (रणम्-अभि) युद्ध को लक्षित करके (पौंस्यम्) बल या पुरुषार्थ को (प्र अपश्यत्) प्रकृष्टरूप से देखता है सम्भालता है (अद्रिम्) पर्वत के समान शत्रुजन को (अवृश्चत्) छिन्न-भिन्न करता है (सस्यदः) साथ भागनेवाले शत्रुओं को (अव सृजत्) नीचे सुला देता है (पृथुम्-नाकम्) फैले हुए सुखप्रद राष्ट्र को (स्वपस्यया) उत्तम कर्म इच्छा से (अस्तभ्नात्) सम्भालता है, वह राजा होता है ॥४॥
भावार्थभाषाः - राजा जब राजसूय यज्ञ द्वारा प्रसिद्ध हो जाता है, तो स्पर्धाशील संघर्ष करनेवाले शत्रुओं को पीड़ित करे और अपने बल का निरीक्षण करे, पर्वतसदृश दृढ़ शत्रु को भी छिन्न-भिन्न करने में समर्थ हो, भागते हुए शत्रुओं को भूमि पर सुलानेवाला हो, अपने उत्तम शक्तिसम्पन्न कर्म करने की इच्छा से विस्तृत राष्ट्र को सम्भाले, वह राजा होता है ॥४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

घर को स्वर्ग बनाना

पदार्थान्वयभाषाः - [१] जिस दिन आचार्यकुल से विद्यार्थी शिक्षा पूरी करके समावृत्त होकर घर पर आता है तो (जज्ञानः एव) = आचार्यकुल से द्वितीय जन्म लेता हुआ ही (स्पृधः) = शत्रुओं को (व्यबाधत) = पीड़ित करता है, अपने से दूर रखता है। कामादि शत्रुओं को वह अपने समीप नहीं आने देता। (वीरः) = शत्रुओं को कम्पित करनेवाला यह वीर (रणं अभि) = युद्ध का लक्ष्य करके (पौस्यं प्रापश्यत्) = अपने बल का पूरा ध्यान करता है, शक्ति को स्थिर रखने के लिए यत्नशील होता है, गृहस्थ में प्रवेश करने पर वह इस बात का पूरा ध्यान करता है कि कामादि शत्रुओं का शिकार न हो जाए, अपनी शक्ति को न खो बैठे। [२] यह (अद्रिम्) = अविद्या पर्वत को (अवृश्चत्) = काटनेवाला होता है और (स-स्यदः) = साथ-साथ प्रवाहित होनेवाले ज्ञान प्रवाहों को (अवसृजत् पुनः) = प्रवाहयुक्त करता है। वासना के कारण ज्ञानेन्द्रियों की शक्ति कुण्ठित हो गई थी । वासना विनाश से ज्ञानेन्द्रियों का कार्य सुचारुरूपेण होने लगता है और सब ज्ञान प्रवाह ठीक से चलने लगते हैं। [३] इस प्रकार (स्वपस्यया) = उत्तम कर्मों की ही कामना से यह (पृथुं नाकम्) = विस्तृत स्वर्गलोक को (अस्तभ्नात्) = थामनेवाला होता है। वस्तुतः यह अपने घर को स्वर्ग ही बना डालता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - गृहस्थ में हम काम आदि शत्रुओं का बाधन करें। शक्ति का रक्षण करें। अज्ञान को नष्ट करके उत्तम कर्मों में प्रवृत्त हों तभी घर स्वर्ग बनेगा ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (जज्ञानः-एव) राजा राजसूययज्ञेन प्रसिद्धः सन्नेव (स्पृधः-वि अबाधत) स्पर्धाशीलान् शत्रून् विशेषेण बाधते (वीरः-रणम्-अभि पौंस्यम् प्र अपश्यत्) वीरः सन् युद्धमभिलक्ष्य बलं पुरुषार्थं वा प्रप्रश्यति (अद्रिम्-अवृश्चत्) पर्वतवद् दृढं शत्रुजनं वृश्चति छिनत्ति (सस्यदः-अव सृजत्) सह स्यन्दमानान् शत्रून् नीचैः शाययति (पृथुं नाकं स्वपस्यया अस्तभ्नात्) प्रथमानं सुखं राष्ट्रं सुकर्मेच्छया स्तभ्नाति स राजा भवति ॥४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - From the very rise and manifestation, repelling, expelling and removing conflicts and confrontations of jealous forces, watching, assessing and affirming his fighting forces, breaking down clouds of pent up waters and mountainous hoards of resources and releasing all stagnant potentials, and sustaining the mighty vast world of light and joy by his will, wisdom and active power, Indra rules and reigns in glory.