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श्रु॒धी नो॑ अग्ने॒ सद॑ने स॒धस्थे॑ यु॒क्ष्वा रथ॑म॒मृत॑स्य द्रवि॒त्नुम् । आ नो॑ वह॒ रोद॑सी दे॒वपु॑त्रे॒ माकि॑र्दे॒वाना॒मप॑ भूरि॒ह स्या॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śrudhī no agne sadane sadhasthe yukṣvā ratham amṛtasya dravitnum | ā no vaha rodasī devaputre mākir devānām apa bhūr iha syāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

श्रु॒धि । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । सद॑ने । स॒धऽस्थे॑ । यु॒क्ष्व । रथ॑म् । अ॒मृत॑स्य । द्र॒वि॒त्नुम् । आ । नः॒ । व॒ह॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । दे॒वपु॑त्रे॒ इति॑ दे॒वऽपु॑त्रे । माकिः॑ । दे॒वाना॑म् । अप॑ । भूः॒ । इ॒ह । स्याः॒ ॥ १०.११.९

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:11» मन्त्र:9 | अष्टक:7» अध्याय:6» वर्ग:10» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:1» मन्त्र:9


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे ज्ञानप्रकाशक परमात्मन् ! (सधस्थे सदने) हमारे तुम्हारे समागम के सहस्थान-हदय में (नः श्रुधि) हमारे प्रार्थनावचन को सुन-स्वीकार कर (अमृतस्य द्रवित्नुं रथं युक्ष्व) अमृत-आनन्द के द्रवित करने-रिसानेवाले अपने रमणीय स्वरूप को मेरे में युक्त कर (देवपुत्रे रोदसी नः आवह) तुझ परमात्मदेव की पुत्रियों-सृष्टि और मुक्ति अभ्युदय निःश्रेयस साधनेवाली को हमारे लिये प्राप्त करा (देवानां माकिः-अपभूः) हम देवों-आस्तिक मनस्वी जनों में से कोई भी अभ्युदय और निःश्रेयस से पृथक् न हो-वञ्चित न हो (इह स्याः) वैसे तू यहाँ हदय में साक्षात् हो ॥९॥
भावार्थभाषाः - आस्तिक मनवाले उपासक जन की प्रार्थना को परमात्मा सुनता-स्वीकार करता है। जब कोई हदय में श्रद्धा और ध्यान द्वारा परमात्मा का स्मरण करता है, वह अभ्युदय और निःश्रेयस को प्राप्त करता है, कोई भी आस्तिक मनवाला अभ्युदय निःश्रेयस से वञ्चित नहीं रहता है ॥९॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

प्रभु की प्रेरणा

पदार्थान्वयभाषाः - [१] प्रभु जीव से कहते हैं कि हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव ! तू (सदने) = इस शरीर रूप गृह में (सधस्थे) = मिल करके बैठने के स्थान हृदय में (नः श्रुधी) = हमारी बात को सुन । अर्थात् हृदय सधस्थ है, वहाँ आत्मा व परमात्मा दोनों ही का निवास है । हृदयस्थ प्रभु जीव को सदा प्रेरणा देते हैं । जीव को चाहिए कि उस प्रेरणा को सुने। प्रेरणा को सुनने में ही उसका कल्याण है । [२] प्रभु विशेष रूप से कहते हैं कि (रथं युक्ष्वा) = तू अपने रथ को जोत । यह तेरा रथ खड़ा ही न रह जाए। अर्थात् तू सदा क्रियाशील हो । [३] (अमृतस्य द्रवित्नुम्) = यह तेरा रथ अमृत का द्रावक हो। अर्थात् तू सदा मधुर शब्दों का ही बोलनेवाला हो, तेरा सारा व्यवहार ही मधुर हो । [४] (न:) = हमारे (रोदसी) = द्यावापृथिवी को, मस्तिष्क व शरीर को आवह सब प्रकार से धारण करनेवाला हो। तेरा शरीर स्वस्थ हो और मस्तिष्क दीप्त हो। ये तेरा शरीर व मस्तिष्क 'देवपुत्रे' हों, दिव्यगुणों के द्वारा अपने को पवित्र रखनेवाले व सुरक्षित करनेवाले हों [देवैः पुनाति त्रायते] [५] (इह) = तू अपने इस जीवन में (देवानाम्) = दिव्य गुण-सम्पन्न विद्वानों का (अपभूः) = निरादर करनेवाला व अपने से दूर करनेवाला (माकिः स्याः) = मत हो । अर्थात् तू सदा सत्संग करनेवाला हो ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम प्रभु की प्रेरणा को सुनें। प्रभु प्रेरणा दे रहे हैं कि - [क] क्रियाशील बनो, [ख] तुम्हारी वाणी व व्यवहार अमृत तुल्य हो, [ग] शरीर व मस्तिष्क को उत्तम बनाओ, [घ] सदा सत्संग की रुचि वाले बनो । सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से हुआ है कि हम ऋतुओं के अनुसार यज्ञ करनेवाले बनें - [१] हम साधन व वेदज्ञान को अपनाएँ, [२] हमारा प्रत्येक उषाकाल भद्र हो, [३] हम प्रभु का वरण करनेवाले आर्य बनें, [४] शाकाहारी व लोकहितकारी बनकर प्रभु को पाने के अधिकारी हों, [५] हृदयस्थ प्रभु की वाणी को सुनें, [६] प्रेरणा को सुनकर ज्ञानवान् व बलवान् बनें, [७] ज्ञान के परिणाम स्वरूप हमारा परस्पर मेल हो, [८] हम सदा सत्संग में रुचि वाले हों, [९] ऋत व सत्य को अपनाकर शरीर व मस्तिक को सुन्दर बनायें ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे ज्ञानप्रकाशक परमात्मन् ! (सधस्थे सदने) आवयोः समागमस्य सहस्थाने-हृद्गृहे-आगत्य (नः श्रुधि) अस्माकं प्रार्थनावचनं शृणु-स्वीकुरु (अमृतस्य द्रवित्नुं रथं युक्ष्व) अमृतस्यानन्दस्य द्रावकं स्रावकं रथं रमणीयमात्मस्वरूपं मयि योजय “रथः-रममाणोऽस्मिंस्तिष्ठतीति वा” [निरु०९।११] अन्तर्गतणिजर्थः (देवपुत्रे रोदसी नः-आवह) परमात्मनो देवस्य दुहितराविव रोदसी रोधसी रोधनकर्त्र्यौ सृष्टिमुक्ती उभे-अभ्युदयनिःश्रेयससाधिके “देवपुत्रे देवस्य परमात्मनः पुत्रवद्वर्तमाने” [ऋ०१।१८५।४ दयानन्दः] अस्मभ्यं प्रापय (देवानां माकिः-अपभूः) आस्तिकमनस्विनामस्माकं मध्यतः कश्चित् त्वदसङ्गत्योऽभ्युदयनिःश्रेयसाभ्यां पृथगर्थाद् वञ्चितो न भवेत् (इह स्याः) तथा त्वमत्र हृदये साक्षाद् भव ॥९॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Listen to our prayer, Agni, in this hall of yajna, harness your chariot replete with the nectar of immortality, bring us the wealth of earth and light of heaven both divine, let none of the divinities forsake us. Pray abide in our heart here and ever.