पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (अग्ने) = हमारी उन्नतियों के साधक प्रभो ! (यजत) = [यज-संगतिकरण] मेल के द्वारा हमारा त्राण करनेवाले प्रभो ! (यत्) = जब (एषा) = यह (समिति:) = संहतिः = मेल भवाति होता है, अर्थात् जब हम परस्पर मिलकर चलते हैं, जो मिलकर चलना (देवी) = [विजिगीषा] हमारी सब बुराइयों को जीतने की कामना वाला है अर्थात् जिस मेल से सब दुर्गतियाँ दूर होती हैं, जो मेल (देवेषु) = देव पुरुषों में सदा निवास करता है 'येन देवा न वियन्ति, ते च विच्छिद्यन्ते मिथः ' । (यजता) = जो मेल हमें एक दूसरे का आदर करना सिखाता है [यज-पूजा] तथा जिस मेल से हम परस्पर मिलकर चलते हुए एक दूसरे का कल्याण कर पाते हैं (च) = और (यद्) = जब [२] हे (स्वधावः) = [ स्व + धाव] आत्मतत्त्व का शोधन करनेवाले प्रभो ! अथवा [स्वधा+व] अन्नों वाले प्रभो ! आप हमें रत्ना उत्तमोत्तम रमणीय वस्तुओं को (विभजासि) = प्राप्त कराते हैं तो (नः) = हमें (अत्र) = इस मानव जीवन में (वसुमन्तम्) = उत्तम निवास के देनेवाले (भागम्) = भजनीय धनों को (वीतात्) = [आगमय] प्राप्त कराइये । [३] वस्तुतः मेल के होने पर सब उत्तम वस्तुओं की प्राप्ति होती है, हम शत्रुओं को जीत पाते हैं [देवी] रमणीय धनों को, यह परस्पर का मेल ही, हमें प्राप्त कराता है। परिणामतः हमारा निवास उत्तम होता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम परस्पर मेल वाले हों, जिससे सब प्रकार से हमारा निवास उत्तम हो ।