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सदा॑सि र॒ण्वो यव॑सेव॒ पुष्य॑ते॒ होत्रा॑भिरग्ने॒ मनु॑षः स्वध्व॒रः । विप्र॑स्य वा॒ यच्छ॑शमा॒न उ॒क्थ्यं१॒॑ वाजं॑ सस॒वाँ उ॑प॒यासि॒ भूरि॑भिः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sadāsi raṇvo yavaseva puṣyate hotrābhir agne manuṣaḥ svadhvaraḥ | viprasya vā yac chaśamāna ukthyaṁ vājaṁ sasavām̐ upayāsi bhūribhiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सदा॑ । अ॒सि॒ । र॒ण्वः । यव॑साऽइव । पुष्य॑ते । होत्रा॑भिः । अ॒ग्ने॒ । मनु॑षः । सु॒ऽअ॒ध्व॒रः । विप्र॑स्य । वा॒ । यत् । श॒श॒मा॒नः । उ॒क्थ्य॑म् । वाज॑म् । स॒स॒ऽवान् । उ॒प॒ऽयासि॑ । भूरि॑ऽभिः ॥ १०.११.५

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:11» मन्त्र:5 | अष्टक:7» अध्याय:6» वर्ग:9» मन्त्र:5 | मण्डल:10» अनुवाक:1» मन्त्र:5


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे ज्ञानप्रकाशक परमात्मन् ! (यवसा-इव पुष्यते सदा रण्वः अवसि) अपना पोषण करते हुए पशु के लिए जैसे घासतृण रमणीय रोचक होते हैं, वैसे तू हमारे लिए सदा रमणीय है-रोचक है, क्योंकि तू (होत्राभिः-मनुषः-स्वध्वरः) वेदवाणियों द्वारा मनुष्यों का, शोभन राजसूय यज्ञ का आधार है (विप्रस्य वा यत्-उक्थ्यं शशमानः) स्वात्समर्पण द्वारा विशेषरूप से तृप्त करनेवाले, आस्तिक मनवाले उपासक के भी स्तुतिवचन को प्रसन्न-पसन्द करनेवाला तू, स्वीकार करता हुआ (वाजं ससवान्) अमृतभोग को देने के हेतु (भूरिभिः-उपयासि) बहुत प्रकारों से बहुत रक्षाओं के साथ पास आता है-प्राप्त होता है ॥४॥
भावार्थभाषाः - जैसे बुभुक्षित पशु के लिए घास रमणीय-प्रिय-प्यारा होता है, ऐसे ही आस्तिक मनवाले के लिये वेदवाणियों द्वारा तू प्रिय है। परमात्मा स्तुति करनेवालों का व राजसूय यज्ञ का आधार है। स्वात्मसमपर्ण द्वारा तृप्त करनेवाले स्तुतिवचनों को वह पसन्द करता है और अनेक प्रकार से उपासकों की रक्षा करता है ॥४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

ससवान्

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो! आप सदा (रण्वः असि) = सदा रमणीय हो । आप उसी प्रकार सुन्दर हो (इव) = जैसे कि (पुष्यते) = पुष्ट होनेवाले के लिये (यवसा) = यवादितृण धान्य सुन्दर होते हैं । जो किसी प्रकार की हानि न करके मनुष्य को नीरोग ही नीरोग बनानेवाले हैं। इसी प्रकार प्रभु का सान्निध्य मनुष्य की अध्यात्म उन्नति के लिये अत्यन्त हितकर है। जौ शरीर के लिये, प्रभु का स्मरण मन के लिये समान रूप से हितकर हैं । [२] (होत्राभिः) = दानपूर्वक अदन की क्रियाओं से (मनुषः) = विचारशील पुरुष अथवा विचारपूर्वक क्रियाओं को करनेवाला व्यक्ति (स्वधरः) = उत्तम हिंसाशून्य कर्मों वाला होता है। [३] (यत्) = जब (शशमानः) = प्रभु का स्तवन करता हुआ अथवा प्रगतिवाला खूब क्रियाशील व्यक्ति (विप्रस्य) = विशेषरूप से अपना पूरण करनेवाले व्यक्ति के (उक्थ्यं) = प्रशंसनीय (वाजम्) = बल को प्राप्त होता है । अर्थात् प्रभुस्तवन से और क्रियाशीलता से वह प्रशंसनीय बल प्राप्त होता है जो कि हमारी सब न्यूनताओं को दूर करने में सहायक होकर हमें 'विप्र' बनाता है । [४] इस 'विप्र' के लिये कहते हैं कि तू (ससवान्) = [सस्यवान्] वानस्पतिक भोजनों का सेवन करनेवाला बनकर (भूरिभिः) = धारण व पोषण की क्रियाओं से [ भृ-धारण पोषणयोः] अर्थात् लोक संग्रहात्मक कार्यों से (उपयासि) = प्रभु के समीप प्राप्त होता है। प्रभु को प्राप्त करने के लिये दो बातें आवश्यक हैं- [क] वानस्पतिक भोजन को अपनाना तथा [ख] अधिक से अधिक प्राणियों के हित में प्रवृत्त होना ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - मनुष्य दानपूर्वक अदन करता हुआ जीवन को यज्ञमय बनाता है। प्रभुस्तवन व क्रियाशीलता को अपनाकर प्रशस्त बल को प्राप्त करता है। शाकाहारी व लोकहितकारी बनकर प्रभु को पाते हैं।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे ज्ञानप्रकाशक परमात्मन् ! (यवसा इव पुष्यते सदा रण्वः-असि) स्वात्मनः पोषणं कुर्वते पशवे यथा यवसानि भक्ष्यतृणानि रमणीयानि रोचकानि सन्ति तथा त्वं रण्वो रमणीयोऽसि खल्वस्मभ्यम्, यतः (होत्राभिः-मनुषः-स्वध्वरः) वाग्भिः-वेदवाग्भिरुपदेशवचनैः “होत्रा वाङ्नाम” [निघ०१।११] मनुष्यस्य राजजनस्य “मनुषः मनुष्यस्य” [निरु०८।५] शोभनो राजसूययज्ञो सिध्यति तथाभूतोऽसि (विप्रस्य वा यत्-उक्थ्यं शशमानः) स्वां स्वात्मसमर्पणेन विशिष्टतया पृणयितुश्च “वा समुच्चयार्थः” [निरु०१।५] यत्राऽस्तिकमनस्वतः स्तुतिवचनं प्रशंसमानः “शशमानः शंसमानः [निरु०६।८] अभिप्रीयमाणः स्वीकुर्वन् (वाजं ससवान्) अमृतभोगं सम्भावयन् “अमृतोऽन्नं वै वाजः” [जै०२।१९३] (भूरिभिः-उपयासि) बहुभिः कृपाभावै रक्षाभिर्वा तमुपगच्छसि-प्राप्नोषि ॥५॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Agni, just as food is dear and auspicious to the robust lover of health, so are you dear, exciting and inspiring for humanity, being the holiest presiding power of social and spiritual yajna served with hymns of invocation and adoration, you who, pleased with the sage’s songs of adoration, sharing and fulfilling the yajnic homage of devotees, visit and bless the celebrants with plenty and immensities of gifts of enlightenment as well as powers.