पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (पणयः) = व्यवहारी लोगो! (दूरम्) = इस विषय-वासनाओं के मार्ग से दूर (वरीयः) = विशाल आत्म मार्ग की ओर (इत) = चलो। (गाव:) = तुम्हारी ये इन्द्रियाँ (ऋतेन) = सत्य के द्वारा तथा यज्ञों में प्रवृत्त होने के द्वारा [ऋत, सत्य, यज्ञ] (मिनती:) = सब अशुभों का हिंसन करती हुई (उद् यन्तु) = विषयों से बाहर होकर उत्कर्ष की ओर चलनेवाली हों। [२] वे इन्द्रियाँ उत्कर्ष की ओर चलनेवाली हों, (निगूढाः) = अविद्या पर्वत से आच्छादित हुई हुई (याः) = जिनको (बृहस्पतिः) = ज्ञान का पति ऊर्ध्वादिक् का अधिपति (अविन्दत्) = प्राप्त करता है । (सोमः) = सोम का, वीर्यशक्ति का रक्षण करके सोम का पुञ्ज बननेवाला इन्हें प्राप्त करता है। (ग्रावाणः) = प्रभु का स्तवन करनेवाले लोग इन्हें प्राप्त करते हैं । (ऋषयः) = तत्त्वद्रष्टा बनकर गतिशील रहनेवाले लोग इन्हें प्राप्त करते हैं, (च) = और (विप्राः) = [वि+प्रा] विशेषरूप से अपना पूरण करनेवाले लोग इन्हें प्राप्त करते हैं । [३] इन इन्द्रियों को अपने अधीन रखनेवाले लोग ही जीवन-यात्रा को ठीक प्रकार से पूरा कर पाते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम 'बृहस्पति, सोम, ग्रावा, ऋषि व विप्र' बनकर इन्द्रियों को स्वाधीन करें, और सफलता से जीवन-यात्रा का पूर्ण करनेवाले हों । मनुष्य संसार के व्यवहारों में ऐसा उलझता है कि प्रभु को भूल जाता है। विषयों का परिग्रह ही उसका जीवनोद्देश्य हो जाता है। उसकी इन्द्रियरूप गौवें अविद्या पर्वत की गुहा में कैद - सी हो जाती हैं। कभी कोई धक्का लगता है, चेतना आती है, और बुद्धि सोचने लगती है तो मनुष्य विषयों के मार्ग से हटकर आत्ममार्ग पर चलता है। यह अब 'ब्रह्म' बनता है, ब्रह्म का बनता है । इसकी क्रियाओं का केन्द्र विषय नहीं रहते। यह 'ऊर्ध्वनाभा' उत्कृष्ट केन्द्रवाला बनता है। प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाला 'जुहूः ' होता है । ब्रह्म को अपने में प्रादुर्भूत करनेवाला 'ब्रह्मजाया' कहलाता है अथवा ब्रह्म, अर्थात् वेदवाणी को यह अपनी जाया बनाता है 'परीमे गामनेषत' । इसकी क्रियाओं के केन्द्र सांसारिक विषय न होकर ज्ञान व प्रभु-दर्शन बनते हैं सो यह 'ऊर्ध्वनाभा' हो जाता है 'उत्कृष्ट केन्द्रवाला'। इसे 'सूर्य, जल, वायु' सभी प्रभु की महिमा का दर्शन कराते हैं-