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तमे॒व ऋषिं॒ तमु॑ ब्र॒ह्माण॑माहुर्यज्ञ॒न्यं॑ साम॒गामु॑क्थ॒शास॑म् । स शु॒क्रस्य॑ त॒न्वो॑ वेद ति॒स्रो यः प्र॑थ॒मो दक्षि॑णया र॒राध॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tam eva ṛṣiṁ tam u brahmāṇam āhur yajñanyaṁ sāmagām ukthaśāsam | sa śukrasya tanvo veda tisro yaḥ prathamo dakṣiṇayā rarādha ||

पद पाठ

तम् । ए॒व । ऋषि॑म् । तम् । ऊँ॒ इति॑ । ब्र॒ह्माण॑म् । आ॒हुः॒ । य॒ज्ञ॒ऽन्य॑म् । सा॒म॒ऽगाम् । उ॒क्थ॒ऽशास॑म् । सः । शु॒क्रस्य॑ । त॒न्वः॑ । वे॒द॒ । ति॒स्रः । यः । प्र॒थ॒मः । दक्षि॑णया । र॒राध॑ ॥ १०.१०७.६

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:107» मन्त्र:6 | अष्टक:8» अध्याय:6» वर्ग:4» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:9» मन्त्र:6


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यः प्रथमः) जो प्रमुख दानी (दक्षिणया रराध) दक्षिणादान द्वारा विद्वान् की कामना को साधता है, सिद्घ करता है (तम् एव) उसको ही (ऋषिम्) मनुष्यों में सम्यग् द्रष्टा (तम्-उ) उसे ही (ब्रह्माणम्) यज्ञ में प्रधान ऋत्विक् (यजन्युम्) यज्ञ के नेता अध्वर्यू (सामगाम्) साम के गायक उद्गाता (उक्थशासम्) ऋग्मन्त्र का शंसन करनेवाला होता (आहुः) कहते हैं, क्योंकि उसकी दक्षिणा देने से ये सब यज्ञ का विस्तार करते हैं (सः) वह (शुक्रस्य) प्रकाशमान परमात्मा की (तिस्रः-तन्वः)  “अ, उ, म्” इन तीन मात्रारूप देहों को (वेद) जानता है, क्योंकि उसके आदेश से यथायोग्य पात्र में दक्षिणा देता है ॥६॥
भावार्थभाषाः - जो यजमान यज्ञ में दक्षिणा देकर विद्वान् की कामना को पूरा करता है, मानो वह यज्ञ का ब्रह्मा है, अध्वर्यु है, उद्गाता है, होता है, उसकी दक्षिणा द्वारा ही ये चारों त्विज् यज्ञ का कार्य करते हैं। वह ऐसा दानी ‘ओम्’ नाम के परमात्मा की अवस्थाओं को जो अ, उ, म् एवं इति मात्राएँ कहलाती हैं, उन्हें जानता है, जानने में समर्थ होता है ॥६॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

दान से यज्ञों का साधन

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (यः) = जो (प्रथमः) = [प्रथ विस्तारे] अपने हृदय को अत्यन्त विशाल बनाता हुआ (दक्षिणया) = दानवृत्ति से (रराध) = सिद्धि को प्राप्त करता है, दान के द्वारा सब अशुभों को दूर करके शुभों को सिद्ध करता है। (तं एव) = उसको ही (ऋषिं आहुः) = ऋषि कहते हैं 'ऋष गतौ' सब कार्यों का करनेवाला जानते हैं। [२] यज्ञ में सब ऋत्विजों के कार्य इसकी दानवृत्ति से ही परिपूर्ण होते हैं । सो तं उ उस दानी पुरुष को ही (ब्रह्माणम्) = ब्रह्मा कहते हैं, उसी को (यज्ञन्यम्) = यज्ञ का चलानेवाला 'अध्वर्यु' कहते हैं, (सामगाम्) = उसी को साम का गायन करनेवाला 'उद्गाता' जानते हैं और उसी को (उक्थशासम्) = उक्थों का [ शस्त्रों का] शंसन करनेवाला 'होता' कहते हैं। यह दानी ही 'ब्रह्मा, अध्वर्यु, उद्गाता व होता' है । [३] (सः) = वह दानी (शुक्रस्य) = उस ज्योतिर्मय प्रभु की (तिस्रः तन्वः वेद) = तीनों शरीरों को जानता है। प्रभु कृपा से इसके शरीर रूप पृथिवीलोक में तेजस्विता के रूप में अग्नितत्त्व होता है। इसके हृदयान्तरिक्ष में प्रसन्नता के रूप में चन्द्र का निवास होता है और इसके मस्तिष्करूप द्युलोक में ज्ञान सूर्य का उदय होता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - दानी ही सब यज्ञों को सिद्ध करता है। यह प्रभु कृपा से शरीर में अग्नि को, हृदय में चन्द्र को व मस्तिष्क में सूर्य को प्राप्त करता है।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यः प्रथमः) यः प्रथमः सन् (दक्षिणया रराध) दक्षिणादानेन विदुषः कामनां साध्नोति, (तम्-एव ऋषिम्) तं हि खल्वृषिं मानवानां सम्यग् द्रष्टारं (तम्-उ ब्रह्माणम्) तमेव यज्ञे ब्रह्माणं प्रधानर्त्विजं (यज्ञन्यम्) यज्ञस्य नेतारमध्वर्युं (सामगाम्) साम्नां गायकमुद्गातारम् (उक्थशासम्) उक्थमृग्मन्त्रं शंसतीति-होतारम् “ऋचः प्रणवः-उक्थशंसिनम्” [तै० ३।२।९।६] (आहुः) कथयन्ति यतस्तस्य दक्षिणादानेन खल्वेते सर्वे यज्ञं तन्वन्ति, (सः) स एव (शुक्रस्य तिस्रः-तन्वः-वेद) प्रकाशमानस्य-परमात्मनः-‘अ-उ-म्’ इति मात्रा तिस्रः-वेदपदादेशेन यथायोग्यं पात्रेभ्यो दक्षिणां प्रयच्छति ॥६॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - He alone they call Rshi, the seer, Brahma, presiding priest of yajna, Adhvaryu, prime organiser, Samaga, singer of Saman hymns, and Ukthashasa, scholar specialist of the Rks, and he alone is the knower of immaculate divinity, who has first realised the three mantras of Aum, three branches of Veda, Rk, Yajuh and Sama, three orders of yajnic fire, Agni, Vayu and Aditya, and who has first fulfilled the basic part and pre-requisite of yajna, Dakshina.