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हरी॒ यस्य॑ सु॒युजा॒ विव्र॑ता॒ वेरर्व॒न्तानु॒ शेपा॑ । उ॒भा र॒जी न के॒शिना॒ पति॒र्दन् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

harī yasya suyujā vivratā ver arvantānu śepā | ubhā rajī na keśinā patir dan ||

पद पाठ

हरी॒ इति॑ । यस्य॑ । सु॒ऽयुजा॑ । विऽव्र॑ता । वेः । अर्व॑न्ता । अनु॑ । शेपा॑ । उ॒भा । र॒जी इति॑ । न । के॒शिना॑ । पतिः॑ । द॒न् ॥ १०.१०५.२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:105» मन्त्र:2 | अष्टक:8» अध्याय:5» वर्ग:26» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:9» मन्त्र:2


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वेः-यस्य) स्तुतिवचन को चाहनेवाले जिस परमात्मा के (सुयुजा) अच्छे नियोक्तव्य (विव्रता) विविधकर्मसाधक (अर्वन्ता) प्रापणशील (शेपा) स्तुति करनेवाले को स्पर्श करनेवाले (हरी) दुःख हरनेवाले कृपा प्रसाद (उभा) दोनों (रजी) रञ्जक (केशिना) सूर्य चन्द्रमा के समान हैं (पतिः) वह विश्वपति परमात्मा (दन्) स्तुतिकर्ता के अभीष्ट दर्शन या सुख को देता हुआ (अनु) अनुकूल वर्त्तता है ॥२॥
भावार्थभाषाः - स्तुति को परमात्मा चाहता है, उसके कृपा प्रसाद दो गुण स्तुति करनेवाले के लिये मनोरञ्जकरूप में उसे प्राप्त होते हैं, परमात्मा अपने दर्शन स्तुतिकर्त्ता को देता है ॥२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

उत्तम इन्द्रियाश्व

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (यस्य) = जिस प्रभु के (हरी) = ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्व (सुयुजौ) = उत्तमता से इस शरीररथ में जोते गये हैं, (विव्रता) = जो अश्व विविध व्रतोंवाले हैं, (अर्वन्ता) = जो गतिशील हैं, (अनुशेपा) = जो अनुकूल तत्त्वों को निर्माण करनेवाले हैं [शेप्-पेशस् form] । (उभा रजी न) = दोनों अश्व रञ्जक सूर्य व चन्द्र के समान (केशिना) = प्रकाशमय रश्मियोंवाले हैं । [२] 'अनुशेपा' का अर्थ सायणाचार्य के अनुसार प्रशस्त शक्तिवाले है। इन इन्द्रियाश्वों की निर्बलता के होने पर जीवन- यात्रा की पूर्ति का प्रश्न ही नहीं रह जाता। ये इन्द्रियाश्व शक्तिशाली हों और अपने-अपने कार्यों को उत्तमता से करनेवाले हों। [३] (पतिः) = ऐसे इन्द्रियाश्वों का स्वामी वह प्रभु (दन्) = हमारे लिए इन इन्द्रियाश्वों को प्राप्त कराता हुआ [दन्= प्रयच्छन्] (वेः) = [to pervade or shine] सर्वत्र व्याप्त हो रहा है व दीप्त हो रहा है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु हमें उन इन्द्रियाश्वों को प्राप्त कराएँ जो उत्तमता से कार्यों में लगनेवाले व सूर्य और चन्द्र के समान दीप्त हों ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यस्य वेः) यस्य स्तुतिवचनं कामयमानस्य परमात्मनः (सुयुजा विव्रता-अर्वन्ता शेपा हरी) सुष्ठु नियोज्यो विविधकर्मसाधकौ प्रापणशीलौ स्तोतुः स्पर्शकौ “शेपः शपतेः स्पृशतिकर्मणः” [निरु० ३।२१] दुःखहारिणौ कृपाप्रसादौ (उभा रजी केशिना) द्वौ रञ्जकौ सूर्याचन्द्रमसाविव स्तः सः (पतिः-दन्) विश्वपतिः परमात्मा स्तोतुरभीष्टं दर्शनं सुखं वा प्रयच्छन् (अनु) अनुवर्तते ॥२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - The person whose senses of perception and volition are properly under control, dedicated to the soul in repose and illuminative like the sun and moon in unison, is blest by the master with the gift of peace and divine ecstasy in the state of grace.