पदार्थान्वयभाषाः - (देवताओं का जयघोष उठे)- गत मन्त्र में प्राण-साधना तथा इन्द्रियों के वशीकरण के द्वारा देवसेनाओं की उत्पत्ति, उद्गति व प्रगति का उल्लेख हुआ था। वे असुरों पर विजय पाती हुई आगे बढ़ रही थीं। प्रस्तुत मन्त्र में विजय पानेवाली उन्हीं देवसेनाओं के जयघोष का वर्णन हैं- १. (वृष्णः इन्द्रस्य) = शक्तिशाली व औरों पर सुखों की वर्षा करनेवाले, जितेन्द्रिय – इन्द्रियों के अधिष्ठाता इन्द्र का तथा २. (राज्ञः वरुणस्य) = [well regulated] अति नियमित जीवनवाले वरुण का, जिसने सब बुराइयों का वारण किया है तथा ३. (आदित्यानां मरुताम्) = अपने अन्दर निरन्तर उत्तमता का ग्रहण करनेवाले [आदानात् आदित्यः] प्राण-साधक मरुतों का [ मरुतः प्राणाः ] (शर्धः) = बल (उग्रम्) = बड़ा उदात्त व तीव्र होता है । इन्द्र का विशेषण वृषन् है - जो भी जितेन्द्रिय बनेगा वह अवश्य शक्तिशाली व औरों पर सुखों की वर्षा करनेवाला होगा। वरुण श्रेष्ठ का विशेषण 'राज्ञः ' है - उत्तम प्रकार से नियमित जीवनवाला । वस्तुतः नियमित जीवन ही हमें उत्तम बनाता है मरुत्—प्राण-साधना करनेवाले आदित्य हैं - अपने अन्दर निरन्तर दिव्यता का आदान कर रहे हैं। आदित्य अदिति -पुत्र हैं- 'अदीना देवमाता' के पुत्र हैं। देवमाता इन दिव्य गुणरूप आदित्यों को जन्म देती है । इन्द्र, वरुण व मरुतों का, जो देवताओं के तीन महारथी हैं, बल [शर्धः] बड़ा उदात्त [उग्रम्] होता है, इन महारथियों का अनुगमन करनेवाले (महामनसाम्) = विशाल मनवाले (भुवनच्यवानाम्) = भुवनों का भी त्याग कर देनेवाले, अर्थात् लोकहित के लिए अधिक-से-अधिक त्याग करने के लिए उद्यत (देवानाम्) = देवताओं का (जयताम्) = जो सदा जय प्राप्त करनेवाले हैं, उनका (घोषः) = विजयघोष (उदस्थात्) = मेरे जीवन में सदा उठे, अर्थात् मेरे जीवन में सदा देवों का विजय हो और असुरों का पराजय । यहाँ प्रसङ्गवश देवों की दो विशेषताओं का उल्लेख हुआ है एक तो वे 'विशाल मनवाले' होते हैं और दूसरा वे 'अधिक-से-अधिक त्याग के लिए उद्यत' होते हैं। विशाल हृदयता व त्याग के बिना कोई देव नहीं बन पाता ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- मैं इन्द्र बनूँ, वरुण बनूँ, मरुत् होऊँ । हृदय को विशाल बनाऊँ, सदा त्याग के लिए उद्यत रहूँ।