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अ॒भि गो॒त्राणि॒ सह॑सा॒ गाह॑मानोऽद॒यो वी॒रः श॒तम॑न्यु॒रिन्द्र॑: । दु॒श्च्य॒व॒नः पृ॑तना॒षाळ॑यु॒ध्यो॒३॒॑ऽस्माकं॒ सेना॑ अवतु॒ प्र यु॒त्सु ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

abhi gotrāṇi sahasā gāhamāno dayo vīraḥ śatamanyur indraḥ | duścyavanaḥ pṛtanāṣāḻ ayudhyo smākaṁ senā avatu pra yutsu ||

पद पाठ

अ॒भि । गो॒त्राणि॑ । सह॑सा । गाह॑मानः । अ॒द॒यः । वी॒रः । श॒तऽम॑न्युः । इन्द्रः॑ । दुः॒ऽच्य॒व॒नः । पृ॒त॒ना॒षाट् । अ॒यु॒ध्यः॑ । अ॒स्माक॑म् । सेनाः॑ । अ॒व॒तु॒ । प्र । यु॒त्ऽसु ॥ १०.१०३.७

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:103» मन्त्र:7 | अष्टक:8» अध्याय:5» वर्ग:23» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:9» मन्त्र:7


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अदयः) शत्रुओं के विषय में दयारहित (वीरः) पराक्रमी (शतमन्युः) बहुत तेजस्वी (इन्द्रः) शासक या सेनानी (सहसा) बल से (गोत्राणि) शत्रु के सैन्य वर्गों को (अभि गाहमानः) अभिभूत करके विलोडता हुआ (दुश्च्यवनः) शत्रु से असह्य (पृतनाषाट्) संग्राम को वश में करनेवाला (अयुध्यः) अयोध्य (युत्सु) युद्धों में (अस्माकम्) हमारी (सेनाः) सेनाओं की (प्र अवतु) रक्षा करे ॥७॥
भावार्थभाषाः - शासक या सेनाध्यक्ष को चाहिये कि युद्ध के अवसर पर शत्रु के सम्बन्ध में दया न करे, किन्तु वीरता दिखाये, बहुत ओजस्वी होकर अपने सभी प्रकार के बल से शत्रु के सैन्य वर्गों पर प्रभाव डालता हुआ विलोडन करे-छिन्न-भिन्न करे, संग्राम में डटनेवाला हो, अन्य को उसके सम्मुख युद्ध करने का साहस न हो, ऐसा युद्धों में लड़नेवाला सेनाओं की रक्षा करे ॥७॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

कमाएँ पर जोड़े नहीं

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता जीव (गोत्राणि) = धनों को (सहसा) = प्रसन्नतापूर्वक [with a smiling face] (अभिगाहमानः) = सर्वतः अवगाहन करता हुआ, अर्थात् सब सुपथों से प्राप्त करता हुआ (अदयः) = [देङ् रक्षणे ] उन्हें अपने पास सुरक्षित रखनेवाला नहीं होता। क्या पेट, जो रुधिर बनता है, उस रुधिर को अपने पास रख लेता है ? अपने पास न रखने से ही वह वस्तुतः स्वस्थ रहता है । इसी प्रकार यह इन्द्र धनों को कमाता है, उनमें अवगाहन करता है-rolls in wealth, परन्तु उन्हें जोड़कर अपने पास नहीं रख लेता, इसीलिए तो वह प्रसन्न भी रहता है । (वीरः) = यह दानवीर बनता है। धन के प्रति आसक्ति न होने से यह कमाता है और देता है (शतमन्युः) = यह सैकड़ों क्रतुओं व प्रज्ञानोंवाला होता है। धनों का यह यज्ञों व ज्ञानप्राप्ति में विनियोग करता है । (दुश्च्यवनः) = यह अपने इस यज्ञ मार्ग से सुगमता से हटाया नहीं जा सकता। धन का लोभ इसे अयज्ञिय नहीं बना पाता यह (पृतनाषाट्) = काम-क्रोधादि शत्रु सेनाओं का पराभव करनेवाला होता है (अयुध्यः) = काम-क्रोधादि इसे कभी युद्ध में पराजित नहीं कर पाते। यह इन्द्र (प्रयुत्सु) = इन उत्कृष्ट आध्यात्मिक संग्रामों में (अस्माकं सेना) = हमारी दिव्य गुणों की सेनाओं को (अवतु) = सुरक्षित करे। काम-क्रोधादि का पराजय हो, प्रेम व मित्रता की भावना की विजय हो ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम धन कमाएँ, परन्तु उसे जोड़ें नहीं, जिससे हमारे दिव्य गुण उसमें नष्ट न हो ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अदयः) शत्रूणां विषये दयारहितः (वीरः) पराक्रमी (शतमन्युः) बहुतेजस्वी “मन्युर्मन्यतेर्दीप्तिकर्मणः” [निरु० १०।२९] (इन्द्रः) शासकः सेनानीर्वा (सहसा) बलेन (गोत्राणि-अभि गाहमानः) शत्रोः सैन्यवर्गान् खल्वभिभूय विलोडयन् (दुश्च्यवनः) शत्रुणाऽसह्यः (पृतनाषाट्) सङ्ग्रामस्याभिभविता (अयुध्यः) अयोध्यः (पृत्सु) युद्धेषु (अस्माकं सेनाः  प्र-अवतु) अस्माकं सेनाः प्ररक्षतु ॥७॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - May Indra, breaker of clouds and enemy strongholds, with his courage and valour, unmoved by pity, hero of a hundredfold passion, shaker of the strongest evils, destroyer of enemy forces, irresistible warrior, protect our army in our assaults and advances.