लोभ [Desire of attainment] का परिणाम
पदार्थान्वयभाषाः - लोभ की प्रवृत्ति बड़ी विचित्र है । १. यह कम-से-कम प्रयत्न से अधिक-से-अधिक लेना चाहती है। २. यह प्रवृत्ति आवश्यकता को नहीं देखती। इसमें धन के प्रति लोभ [ लुभ=Love]— एक प्रेम-सा होता है, जिसके कारण एक लोभी किसी अन्य बन्धु-बान्धव या प्राणी से प्रेम नहीं कर पाता । ३. इतना ही नहीं यह किसी अन्य की सम्पत्ति को देखकर जलता है-'इसके हृदय में उनके प्रति स्नेह न रहे', यही नहीं; यह उनके प्रति 'दुर्हृद् = अमित्र' हो जाता है और उनको नष्ट करने का प्रयत्न करता है, या स्वयं ही उस ईर्ष्याग्नि में जलता रहता है । एवं, लोभ ईर्ष्याजनक होता है । मन्त्र में कहते हैं कि (अप्वे) = हे [आप्= प्राप्त करना] अधिक और अधिक धन को प्राप्त करने की इच्छा ! तू (अमीषाम्) = इन तेरे शिकार बने हुए लोगों के (चित्तम्) = चित्त को (प्रतिलोभयन्ती) = प्रत्येक ऐश्वर्य के प्रति लुब्ध करती हुई (अङ्गानि गृहाण) = इनके अङ्गों को जकड़ ले-इनको अपने वश में कर ले। लोभाविष्ट हुआ हुआ मनुष्य इस प्रकार धन का दास बन जाता है कि उसको धनके अतिरिक्त कुछ भी नहीं सूझता । वह धन के लिए अपने आराम को समाप्त कर देता है - वह धन के लिए अपने बन्धुत्व की बलि दे देता है- आत्मा-परमात्मा के स्मरण का तो प्रश्न ही नहीं रहता। एक ही शब्द उसके अङ्ग-प्रत्यङ्ग से सुनाई पड़ता है- धन-धन और धन । (परा इहि) = हे अप्वे ! तू हमसे (परे जा) = हमारा पीछा छोड़ । जो (अमित्राः) = किसी से स्नेह न करनेवाले लोग हैं उनका (अभि-प्र-इहि) = लक्ष्य करके तू खूब गतिशील हो, अर्थात् उन्हें तू प्राप्त कर। उन्हें ही तू (ह्रत्सु) = हृदयों में (शौकेः) = शोकाग्नियों से (निर्दह) = नितरां जलानेवाली बन । लोभी व ईर्ष्यालु पुरुषों के ही मन जलते रहें । हमपर तो तू कृपा कर, हमसे दूर रह और हमें जलानेवाली न हो । ये (अमित्रा:) = प्राणियों के प्रति स्नेहशून्य हृदयवाले लोग ही (अन्धेन तमसा) = इस अन्धी इच्छा से [तमस्=Desire] (सचताम्) = संयुक्त हों। यह इच्छा अन्धी तो है ही । साध्य व साधन Ends व means का विचार न करती हुई यह साधन को ही साध्य समझ लेती है और परिणामतः धन की ही उपासक हो जाती है। धन की देवता भग तो अन्धी है-ये भी धन के पीछे अन्धे हो जाते हैं। अच्छा यही है कि इस अन्धी इच्छा से मुक्त होकर हम 'चक्षुष्मान्' बने रहें - अपने लक्ष्य को पहचानें और उसे प्राप्त करने के लिए अग्रसर हों। हे अप्वे ! धनाहरणाभिलाषे ! तू (परेहि) = कृपया हमसे परे ही रह ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम लोभ की भावना से ऊपर उठें, जिससे हृदयों में शोकाग्नि से सन्तप्त न होते रहें ।