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अ॒मीषां॑ चि॒त्तं प्र॑तिलो॒भय॑न्ती गृहा॒णाङ्गा॑न्यप्वे॒ परे॑हि । अ॒भि प्रेहि॒ निर्द॑ह हृ॒त्सु शोकै॑र॒न्धेना॒मित्रा॒स्तम॑सा सचन्ताम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

amīṣāṁ cittam pratilobhayantī gṛhāṇāṅgāny apve parehi | abhi prehi nir daha hṛtsu śokair andhenāmitrās tamasā sacantām ||

पद पाठ

अ॒मीषा॑म् । चि॒त्तम् । प्र॒ति॒ऽलो॒भय॑न्ती । गृ॒हा॒ण । अङ्गा॑नि । अ॒प्वे॒ । परा॑ । इ॒हि॒ । अ॒भि । प्र । इ॒हि॒ । निः । द॒ह॒ । हृ॒त्ऽसु । शोकैः॑ । अ॒न्धेन॑ । अ॒मित्राः॑ । तम॑सा । स॒च॒न्ता॒म् ॥ १०.१०३.१२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:103» मन्त्र:12 | अष्टक:8» अध्याय:5» वर्ग:23» मन्त्र:6 | मण्डल:10» अनुवाक:9» मन्त्र:12


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अप्वे) हे स्वास्थ्य से गिरानेवाले रोग या शान्ति से गिरानेवाले भय ! (त्वम्) तू (परा इहि) यहाँ से परे हो जा-पृथक् हो जा (अमीषाम्) इन शत्रुओं के (चित्तम्) चित्तों को-मनबुद्धि चित्त अहङ्कारों को (प्रतिलोभयन्ती) मूढ़ करते हुए (अङ्गानि) उनके अङ्गों को (गृहाण) पकड़ जकड़ शिथिल कर (अभि प्र इहि) उन्हें प्राप्त हो (शोकैः) सन्तापों से (हत्सु) हृदयों को (निर्दह) निर्दग्ध कर दे सर्वथा दग्ध कर दे (अमित्राः) शत्रुजन (अन्धेन) तमसा घने अन्धकार से (सचन्ताम्) संसक्त हो जावें ॥१२॥
भावार्थभाषाः - संग्राम में शत्रुओं के प्रति ऐसा ओषधियों का अस्त्रप्रयोग धूमरूप या वायुरूप-गैस फेंकना चाहिये, जो मानसिक रोग या भय को उत्पन्न कर दे, उनके मन आदि को दूषित तथा अन्य अङ्गों को निष्क्रिय-शिथिल बना दे, हृदयों को जलादे और घने अन्धकार में हुए जैसे बना दे ॥१२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

लोभ [Desire of attainment] का परिणाम

पदार्थान्वयभाषाः - लोभ की प्रवृत्ति बड़ी विचित्र है । १. यह कम-से-कम प्रयत्न से अधिक-से-अधिक लेना चाहती है। २. यह प्रवृत्ति आवश्यकता को नहीं देखती। इसमें धन के प्रति लोभ [ लुभ=Love]— एक प्रेम-सा होता है, जिसके कारण एक लोभी किसी अन्य बन्धु-बान्धव या प्राणी से प्रेम नहीं कर पाता । ३. इतना ही नहीं यह किसी अन्य की सम्पत्ति को देखकर जलता है-'इसके हृदय में उनके प्रति स्नेह न रहे', यही नहीं; यह उनके प्रति 'दुर्हृद् = अमित्र' हो जाता है और उनको नष्ट करने का प्रयत्न करता है, या स्वयं ही उस ईर्ष्याग्नि में जलता रहता है । एवं, लोभ ईर्ष्याजनक होता है । मन्त्र में कहते हैं कि (अप्वे) = हे [आप्= प्राप्त करना] अधिक और अधिक धन को प्राप्त करने की इच्छा ! तू (अमीषाम्) = इन तेरे शिकार बने हुए लोगों के (चित्तम्) = चित्त को (प्रतिलोभयन्ती) = प्रत्येक ऐश्वर्य के प्रति लुब्ध करती हुई (अङ्गानि गृहाण) = इनके अङ्गों को जकड़ ले-इनको अपने वश में कर ले। लोभाविष्ट हुआ हुआ मनुष्य इस प्रकार धन का दास बन जाता है कि उसको धनके अतिरिक्त कुछ भी नहीं सूझता । वह धन के लिए अपने आराम को समाप्त कर देता है - वह धन के लिए अपने बन्धुत्व की बलि दे देता है- आत्मा-परमात्मा के स्मरण का तो प्रश्न ही नहीं रहता। एक ही शब्द उसके अङ्ग-प्रत्यङ्ग से सुनाई पड़ता है- धन-धन और धन । (परा इहि) = हे अप्वे ! तू हमसे (परे जा) = हमारा पीछा छोड़ । जो (अमित्राः) = किसी से स्नेह न करनेवाले लोग हैं उनका (अभि-प्र-इहि) = लक्ष्य करके तू खूब गतिशील हो, अर्थात् उन्हें तू प्राप्त कर। उन्हें ही तू (ह्रत्सु) = हृदयों में (शौकेः) = शोकाग्नियों से (निर्दह) = नितरां जलानेवाली बन । लोभी व ईर्ष्यालु पुरुषों के ही मन जलते रहें । हमपर तो तू कृपा कर, हमसे दूर रह और हमें जलानेवाली न हो । ये (अमित्रा:) = प्राणियों के प्रति स्नेहशून्य हृदयवाले लोग ही (अन्धेन तमसा) = इस अन्धी इच्छा से [तमस्=Desire] (सचताम्) = संयुक्त हों। यह इच्छा अन्धी तो है ही । साध्य व साधन Ends व means का विचार न करती हुई यह साधन को ही साध्य समझ लेती है और परिणामतः धन की ही उपासक हो जाती है। धन की देवता भग तो अन्धी है-ये भी धन के पीछे अन्धे हो जाते हैं। अच्छा यही है कि इस अन्धी इच्छा से मुक्त होकर हम 'चक्षुष्मान्' बने रहें - अपने लक्ष्य को पहचानें और उसे प्राप्त करने के लिए अग्रसर हों। हे अप्वे ! धनाहरणाभिलाषे ! तू (परेहि) = कृपया हमसे परे ही रह ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम लोभ की भावना से ऊपर उठें, जिससे हृदयों में शोकाग्नि से सन्तप्त न होते रहें ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अप्वे) हे स्वास्थ्यादपक्षेपयितो व्याधे ! यद्वा शान्तितोऽपक्षेपक भय ! “अप्वा व्याधिर्वा भयं वा” [निरु० ६।१३] त्वम् (परा इहि) इतः परं गच्छ (अमीषां चित्तं प्रतिलोभयन्ती) एतेषां शत्रूणां चित्तानि प्रज्ञानानि, मनोबुद्धिचित्ताहङ्कारात्मकान्यन्तः-करणानि प्रतिमोहयमाना व्याधिरूपा भयरूपा विपत्तिः (अङ्गानि गृहाण) तेषामङ्गानि गृहाण शिथिलानि कुरु (अभि प्र इहि) तान्-अभिप्राप्नुहि (शोकैः) सन्तापैः (हृत्सु निर्दह) हृदयानि “विभक्तिव्यत्ययः” निर्दग्धीकुरु (अन्धेन तमसा-अमित्राः सचन्ताम्) एते तं शत्रवोऽन्धेन तमसा संसक्ता भवन्तु ॥१२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Get off, schizophrenia, that torment the heart and delude their mind, depart, ill health, that afflict and disable the body system of those who are children of light. Go forward, be there and burn with pain in the heart of those who are negative souls and love to abide with darkness of mind and sloth of body with suffering and unfriendliness as their food of life.