पदार्थान्वयभाषाः - १. प्रस्तुत मन्त्र में चार बातें कही गयी हैं। पहली बात तो यह कि (ध्वजेषु समृतेषु) = ध्वजाओं व पताकाओं को ठीक प्रकार से प्राप्त कर लेने पर (अस्माकम्) = हम आस्तिक बुद्धिवालों का (इन्द्रः) = परमात्मा हो, अर्थात् हम प्रभु को ही अपना आश्रय मानकर चलें । 'ध्वजा' एक लक्ष्य का प्रतीक है। जब हम एक लक्ष्य बना लें तब प्रभु को अपना आश्रय बनाकर अपने लक्ष्य की प्राप्ति में जुट जाएँ । वस्तुतः संसार में प्रभु का आश्रय मनुष्य को कभी निरुत्साहित नहीं होने देता । आस्तिक मनुष्य प्रभु को सदा अपनाता है और किसी प्रकार से निरुत्साहित न हो अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता चलता है। २. प्रभु से दूसरी प्रार्थना यह है कि (अस्माकम्) = हम आस्तिक वृत्तिवालों की (या:) = जो (इषवः) = प्रेरणाएँ हैं— अन्तः स्थित प्रभु से दिये जा रहे निर्देश हैं (ताः) = वे निर्देश और प्रेरणाएँ ही (जयन्तु) = जीतें । प्रभु की प्रेरणा होती है कि 'उषाकाल हो गया, उठ बैठ। क्यों सो रहा है ?' उसी समय एक इच्छा पैदा होती है कि कितनी मधुर वायु चल रही है, रात को नींद भी तो पूरी नहीं आई, दिन में सुस्ताते रहोगे, थोड़ा और सो ही लो। सामान्यतः यह इच्छा उस प्रेरणा को दबा देती है और व्यक्ति सोया रह जाता है। इसी को हम वैदिक शब्दों में इस रूप में भी कहते हैं कि दैवी प्रेरणा को आसुर कामना दबा लेती है। हम प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि हमारी प्रेरणाएँ ही विजयी हों - इच्छाएँ नहीं । ३. तीसरी प्रार्थना यह है कि (अस्माकम्) = हम आस्तिक वृत्तिवाले में (वीराः) = वीरता की भावनाएँ न कि कायरता की प्रवृत्ति (उत्तरे भवन्तु) = उत्कृष्ट हों - प्रबल हों। हम कायरता से कोई कार्य न करें। दबकर कार्य करना मनुष्यत्व से गिरना है । हमारे कार्य वीरता का परिचय दें । ४. हे (देवा:) = देवो! (अस्मान्) = हम आस्तिकों को (आहवेषु) = इन संग्रामों में (उ) = निश्चय से (अवत) = रक्षित करो। देव हमारे रक्षक हों। जब हम प्रभु में पूर्ण आस्था से चलेंगे, जब हम सदा अन्तःस्थ प्रभु की प्रेरणा को सुनेंगे, जब हम सदा वीरता के कार्य ही करेंगे तो क्यों देवताओं की रक्षा के पात्र न होंगे। जब मनुष्य अपनी वृत्ति को अच्छा बनाता है और पुरुषार्थ में किसी प्रकार की कमी नहीं आने देता तब वह देवों की रक्षा का पात्र होता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - १. जीवन-लक्ष्य को ओझल न होने देते हुए हम प्रभु को अपना आश्रय समझें, २. हममें प्रेरणा की विजय हो न कि इच्छा की, ३. हम सदा वीरतापूर्ण कार्य करें और ४. हम सदा अध्यात्म-संग्रामों में देवों की रक्षा के पात्र हों ।