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आ वो॒ धियं॑ य॒ज्ञियां॑ वर्त ऊ॒तये॒ देवा॑ दे॒वीं य॑ज॒तां य॒ज्ञिया॑मि॒ह । सा नो॑ दुहीय॒द्यव॑सेव ग॒त्वी स॒हस्र॑धारा॒ पय॑सा म॒ही गौः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā vo dhiyaṁ yajñiyāṁ varta ūtaye devā devīṁ yajatāṁ yajñiyām iha | sā no duhīyad yavaseva gatvī sahasradhārā payasā mahī gauḥ ||

पद पाठ

आ । वः॒ । धिय॑म् । य॒ज्ञिया॑म् । व॒र्ते॒ । ऊ॒तये॑ । देवाः॑ । दे॒वीम् । य॒ज॒ताम् । य॒ज्ञिया॑म् । इ॒ह । सा । नः॒ । दु॒ही॒य॒त् । यव॑साऽइव । ग॒त्वी । स॒हस्र॑ऽधारा । पय॑सा । म॒ही । गौः ॥ १०.१०१.९

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:101» मन्त्र:9 | अष्टक:8» अध्याय:5» वर्ग:19» मन्त्र:3 | मण्डल:10» अनुवाक:9» मन्त्र:9


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (देवाः) हे विद्वानों ! (वः) तुम्हारी (यज्ञियां धियम्) सङ्गमनीय उपदेशवाणी को (ऊतये) रक्षा के लिए (आवर्त्ते) आवर्तित करता हूँ-पुनः-पुनः सेवन करता हूँ (इह) इस जीवन में (यजतां देवीम्) पूजनीय देवता की भाँति (यज्ञियाम्) सङ्गमनीय को अवश्य सेवन करता हूँ (सा) वह (मही गौः) प्रशंसनीय गौ (यवसा-इव) जैसे घास से-घास को खाकर (गत्वी) घर में जाकर-प्राप्त होकर (सहस्रधारा) बहुत धारवाली (पयसा) दूध से (नः) हमें (दुहीयत्) प्रपूरित करे ॥९॥
भावार्थभाषाः - विद्वानों से उपदेशवाणी का श्रवण करना चाहिये, अपनी जीवनरक्षा के लिए बारम्बार उसको स्मरण करना और अपने जीवन में घटाना चाहिये, वह दूध देनेवाली गौ की भाँति अमृत को प्रदान करती है ॥९॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

यज्ञिया धीः

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (देवाः) = विद्वानो ! मैं (वः) = आपकी (यज्ञियाम्) = यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रेरित होनेवाली (धियम्) = बुद्धि को (ऊतये) = अपने रक्षण के लिए (आवर्ते) = अपने में आवृत्त करता हूँ । उस बुद्धि को जो (यजताम्) = आदरणीय है और (इह) = इस जीवन में (यज्ञियाम्) = हमें यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रेरित करनेवाली है, (देवीम्) = प्रकाशमय है । इस बुद्धि के द्वारा हमारा जीवन प्रकाशमय होता है और हम यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त होते हैं । [२] (सा) = वह बुद्धि (नः) = हमें (पयसा) = ज्ञानदुग्ध से (दुहीयत्) = उसी प्रकार हमें पूर्ण करे, (इव) = जैसे (यवसा गत्वी) = घास के लिए जाकर (सहस्त्रधारा) = शतश: पुरुषों का धारण करनेवाली (मही) = महनीय व पूजनीय (गौ:) = गौ (पयसा) = दूध से हमारा पूरण करती है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हमें देवों की पवित्र बुद्धि प्राप्त हो जो हमें ज्ञानदुग्ध से पूर्ण करनेवाली हो ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (देवाः) हे विद्वांसः ! (वः) युष्माकं (यज्ञिया धियम्-ऊतये-आवर्ते) सङ्गमनीयामुपदेशवाचम्-“वाग्वै धीः” [काठ० ४।३।४।११] रक्षायै-आवर्तयामि-समन्तात् सेवे, (इह यजतां देवीं यज्ञियाम्) पूजनीयां देवतामिव सम्भजनीयामस्मिन् जीवनेऽवश्यं सेवे (सा) सा खलूपदेशवाक् (मही गौः) महनीया गौः (यवसा-इव) यथा घासेन घासं भक्षयित्वा (गत्वी) गृहं गत्वा (सहस्रधारा) बहुधारा (पयसा नः-दुहीयत्) दुग्धेन अस्मान् प्रपूरयेत् ॥९॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O saints and scholars, noble people all, I exhort your spirit of self-sacrifice for thought and action, exalt this holy yajnic spirit, will and intelligence. And may this great spirit and divine will bring us a thousand streams of nectar joy and prosperity like the cow fed on grass which gives us milk for life and health.