'भर वायु शुचिपा - क्रन्ददिष्टि'
पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र में प्रार्थना थी कि वह सविता देवों के द्वारा हमारे ज्ञान का रक्षण करे। उन देवों से प्रार्थना करते हैं कि हे देवो! आप (भराय) = अपना ठीक से पोषण करनेवाले, (वायवे) = गतिशील के लिए, (शुचिपे) = शुद्ध सोम का पान करनेवाले के लिए, वीर्य को अपने अन्दर ही सुरक्षित करनेवाले के लिए, (क्रन्दद् इष्टये) = यज्ञादि उत्तम कर्मों की प्रार्थना करनेवाले के लिए (ऋत्वियं भागम्) = उस-उस ऋतु व समय के अनुकूल भजनीय अंश का (सु प्रभरत) = अच्छी प्रकार खूब ही भरण कीजिए। मातृ-देवता से हमारे जीवन के प्रारम्भ में उत्तम चरित्र का भरण किया जाए। अब पितृदेव शिष्टाचार का हमारे में भरण करें और तब आचार्य अधिक से अधिक ज्ञान का हमें भक्षण कराएँ। इस प्रकार चरित्र आचार व ज्ञान को प्राप्त करके हम अपने जीवनों को सुन्दर बना पाएँ । [२] उस मेरे लिए ये देव ऋत्विय भाग का भरण करनेवाले हों (यः) = जो मैं (गौरस्य पयसः) = शुद्ध दूध के (पीतिम्) = पान को आनशे-अपने जीवन में व्याप्त करता हूँ। अर्थात् जो मैं शुद्ध दूध का पीनेवाला बनता हूँ। दूध आदि सात्त्विक पदार्थों का सेवन जीवन में उन्नति के लिए आवश्यक है। इस दूध का सेवन करते हुए हम (सर्वतातिम्) = सब उत्तमताओं का विस्तार करनेवाली (अदितिम्) = स्वास्थ्य की देवता का (आवृणीमहे) = सर्वथा वरण करते हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ-देवता हमें ऋत्वियभाग तभी प्राप्त करा पाते हैं जब कि हम 'भर, वायु, शुचिपा व क्रन्ददिष्टि' हों तथा शुद्ध दूध आदि सात्त्विक पदार्थों का ही सेवन करें।