वांछित मन्त्र चुनें

रा॒यो बु॒ध्नः सं॒गम॑नो॒ वसू॑नां य॒ज्ञस्य॑ के॒तुर्म॑न्म॒साध॑नो॒ वेः। अ॒मृ॒त॒त्वं रक्ष॑माणास एनं दे॒वा अ॒ग्निं धा॑रयन्द्रविणो॒दाम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

rāyo budhnaḥ saṁgamano vasūnāṁ yajñasya ketur manmasādhano veḥ | amṛtatvaṁ rakṣamāṇāsa enaṁ devā agniṁ dhārayan draviṇodām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

रा॒यः। बु॒ध्नः। स॒म्ऽगम॑नः। वसू॑नाम्। य॒ज्ञस्य॑। के॒तुः। म॒न्म॒ऽसाध॑नः। वेः। अ॒मृ॒त॒ऽत्वम्। रक्ष॑माणासः। ए॒न॒म्। दे॒वाः। अ॒ग्निम्। धा॒र॒य॒न्। द्र॒वि॒णः॒ऽदाम् ॥ १.९६.६

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:96» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:4» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:6


0 बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह परमेश्वर कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (वेः) मनोहर (यज्ञस्य) अच्छे प्रकार समझाने योग्य विद्याबोध को (बुध्नः) समझाने और (केतुः) सब व्यवहारों को अनेक प्रकारों से चितानेवाला (मन्मसाधनः) वा विचारयुक्त कामों को सिद्ध कराने तथा (रायः) विद्या, चक्रवर्त्तिराज्य, धन और (वसूनाम्) तेंतीस देवताओं में अग्नि, पृथिवी आदि देवताओं का (सङ्गमनः) अच्छे प्रकार प्राप्त करानेवाला है वा (अमृतत्वम्) मोक्षमार्ग को (रक्षमाणासः) राखे हुए (देवाः) आप्त विद्वान् जन जिस (द्रविणोदाम्) धन आदि पदार्थ देनेवाले के समान सब जगत् को देनेहारे (अग्निम्) परमेश्वर को (धारयन्) धारण करते वा कराते हैं (एनम्) उसी को तुम लोग इष्टदेव मानो ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - जीवनमुक्त अर्थात् देहाभिमान आदि को छोड़े हुए वा शरीरत्यागी मुक्त विद्वान् जन जिसका आश्रय करके आनन्द को प्राप्त होते हैं, वही ईश्वर सबके उपासना करने योग्य है ॥ ६ ॥
0 बार पढ़ा गया

हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अमृतत्व की रक्षा करते हुए

पदार्थान्वयभाषाः - १. वे प्रभु (रायः बुध्नः) = सम्पूर्ण ऐश्वर्यों के मूलभूत हैं । सब ऐश्वर्य प्रभु में ही निवास करते हैं । प्रभु के ये ऐश्वर्य (रायः) = [रा दाने] जीव को देने के लिए हैं । जीव की उन्नति के लिए ही ये उद्दिष्ट हैं , इसलिए वे प्रभु (वसूनां संगमनः) = निवास के लिए आवश्यक धनों के प्राप्त करानेवाले हैं । जितना धन जीवन के लिए आवश्यक होता है , वह प्रभु कृपा से मिलता ही है । प्रभु धन तो देते ही हैं , साथ ही वे (यज्ञस्य केतुः) = यज्ञों के प्रकाशक हैं और यही संकेत करते हैं कि इन धनों का तुम्हें यज्ञों में ही विनियोग करना है । वे प्रभु (वेः) = [वी गति] अपने समीप आनेवाले के (मन्मसाधनः) = ज्ञान को सिद्ध करनेवाले हैं । प्रभु की उपासना से ज्ञान प्राप्त होता है । यह ज्ञानी पुरुष धनों का यज्ञों में ही व्यय करता है । वह समझता है कि यज्ञों के अभाव में धन भोग - विलास की वृद्धि का कारण बनकर मनुष्यों के पतन का हेतु बनता है । यज्ञों में विनियुक्त होने पर यह यज्ञशेष का सेवन करनेवाले को अमृतत्व प्राप्त कराता है । यज्ञशेष ही तो अमृत है ।  २. इस प्रकार (अमृतत्वं रक्षमाणासः) = अमृतत्व की रक्षा करते हुए (देवाः) = देव पुरुष एनं (अग्निम्) = इस अग्रणी (द्रविणोदाम्) = सब द्रव्यों को देनेवाले प्रभु को (धारयन्) = धारण करते हैं । यज्ञशील पुरुष भोगासक्त न होने से रोगों से आक्रान्त नहीं होता , अमर बनता है , रोगरूप मृत्युओं से बचा रहता है । यही प्रभु का सच्चा उपासक व धारक है ।   
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु धन देते हैं तो साथ ही यज्ञों का भी प्रकाश कर देते हैं । वे निर्देश करते हैं कि तुम्हें यज्ञों के लिए ही धन दिये गये हैं । इस प्रकार चलने पर ही तुम अमृतत्व की रक्षा कर पाओगे ।   
0 बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

यो वेर्यज्ञस्य बुध्नः केतुर्मन्मसाधनो रायो वसूनां सङ्गमनो वाऽमृतत्वं रक्षमाणासो देवा यं द्रविणोदामग्निं धारयंस्तमेवैनमिष्टदेवं यूयं मन्यध्वम् ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (रायः) विद्याचक्रवर्त्तिराज्यधनस्य (बुध्नः) यो बोधयति सर्वान्पदार्थान्वेदद्वारा सः (सङ्गमनः) यः सम्यग्गमयति सः (वसूनाम्) अग्निपृथिव्याद्यष्टानां त्रयस्त्रिंशद्देवान्तर्गतानाम् (यज्ञस्य) सङ्गमनीयस्य विद्याबोधस्य (केतुः) ज्ञापकः (मन्मसाधनः) यो मन्मानि विचारयुक्तानि कार्य्याणि साधयति सः (वेः) कमनीयस्य (अमृतत्वम्) प्राप्तमोक्षाणां भावम् (रक्षमाणासः) ये रक्षन्ति ते (एनम्) यथोक्तम् (देवाः, अग्निम्०) इति पूर्ववत् ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - जीवनमुक्ता विदेहमुक्ता वा विद्वांसो यमाश्रित्यानन्दन्ति स एव सर्वैरुपासनीयः ॥ ६ ॥
0 बार पढ़ा गया

डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Agni is the foundation and magic mantra of wealth and power. It is the companion of the Vasus, sustainers of life such as the earth, and our guide to achieve them. It is the flag-post and light-house to the yajnic projects of life, and means to the fulfilment of cherished desires. The seekers of immortality and protectors of eternal values hold on to this giver of universal wealth and bear on the fire of yajna from generation to generation.
0 बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जीवनमुक्त अर्थात देहाभिमान इत्यादी सोडलेले किंवा शरीरत्यागी मुक्त विद्वान ज्याचा आश्रय घेतात व आनंद प्राप्त करतात तोच ईश्वर सर्वांनी उपासना करण्यायोग्य आहे. ॥ ६ ॥